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भारत में आज लोककन्त्र है। अंग्रेजी के शब्द डेमोक्रसी का यह अनुवाद है । परन्तु अन्य अनेक संज्ञाओं के अनुवाद की तरह इस शब्द के अनुवाद ने भी भारी अनर्थ किया है। अंग्रेजी का डेमोक्रसी और भारत का लोकतन्त्र एकदूसरे से अत्यन्त भिन्न संकल्पनायें हैं।
 
भारत में आज लोककन्त्र है। अंग्रेजी के शब्द डेमोक्रसी का यह अनुवाद है । परन्तु अन्य अनेक संज्ञाओं के अनुवाद की तरह इस शब्द के अनुवाद ने भी भारी अनर्थ किया है। अंग्रेजी का डेमोक्रसी और भारत का लोकतन्त्र एकदूसरे से अत्यन्त भिन्न संकल्पनायें हैं।
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क्या यह विस्मयकारी नहीं लगता कि सन १९४७ तक - ब्रिटीश भारत से गये तब तक भारत में लोकतन्त्र नहीं था । भारत में ब्रिटीशों का राज्य था तब भी नहीं था। तब भी राज्य तो रानी विक्टोरिया का ही था। आदि काल से भारत में राजाओं का राज्य रहा है। यह अवश्य सत्य है कि गणतन्त्र भी रहे हैं परन्तु आज का लोकतन्त्र भारत की लोकतन्त्र की संकल्पना की घोर विडम्बना है। यह संकल्पना हमने पश्चिम से ली है। आधुनिक काल में इसे श्रेष्ठतम शासनप्रणाली माना जाता है। लोगों का, लोगों के लिये, लोगों द्वारा शासन कहकर लोक का गौरव किया जाता है। सबको समान मानने का यह उत्तम तरीका है।
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क्या यह विस्मयकारी नहीं लगता कि सन १९४७ तक - ब्रिटीश भारत से गये तब तक भारत में लोकतन्त्र नहीं था । भारत में ब्रिटीशों का राज्य था तब भी नहीं था। तब भी राज्य तो रानी विक्टोरिया का ही था। आदि काल से भारत में राजाओं का राज्य रहा है। यह अवश्य सत्य है कि गणतन्त्र भी रहे हैं परन्तु आज का लोकतन्त्र भारत की लोकतन्त्र की संकल्पना की घोर विडम्बना है। यह संकल्पना हमने पश्चिम से ली है। आधुनिक काल में इसे श्रेष्ठतम शासनप्रणाली माना जाता है। लोगोंं का, लोगोंं के लिये, लोगोंं द्वारा शासन कहकर लोक का गौरव किया जाता है। सबको समान मानने का यह उत्तम तरीका है।
    
परन्तु कुछ समझदार व्यक्ति इसे अतार्किक अवश्य कहेगा । व्यक्ति के रूप में सब समान होने पर भी भावात्मक और बौद्धिक दृष्टि से सब समान नहीं होते यह हकीकत है ।
 
परन्तु कुछ समझदार व्यक्ति इसे अतार्किक अवश्य कहेगा । व्यक्ति के रूप में सब समान होने पर भी भावात्मक और बौद्धिक दृष्टि से सब समान नहीं होते यह हकीकत है ।
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वर्ण और जाति व्यवस्था का हम त्याग भी कर दें तो तत्त्वतः तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती। परन्तु इनका पर्याय खोजना और स्थापित करना तो अत्यन्त आवश्यक है । इस दृष्टि से हमें वर्ण और जाति की उपयोगिता क्या थी और उनके दूषण क्या थे इसका विचार करना होगा । दूषण का विचार करें तो दो बातें ध्यान में आती हैं । एक है ऊँच नीच का भेद और दूसरी है अस्पृश्यता । उपयोगिता का विचार करें तो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वर्ण और जाति से आचार और व्यवसाय की व्यवस्था और निश्चिति होती थी। तत्वतः वर्ण जन्म से नहीं अपितु गुण और कर्म से माने जाते थे परन्तु व्यवहार में जन्म से ही माने जाने लगे थे। वर्ण और जाति विवाह के लिये भी आवश्यक मानी जाती थी । वर्णान्तर और जात्यन्तर यद्यपि सम्भव था परन्तु नगण्य मात्रा में किया जाता था । स्थिर समाज के लिये, अर्थार्जन की निश्चितता और निश्चिंतता और संस्कृति और समृद्धि की सुरक्षा के लिये इनका उपयोग था । इन व्यवस्थाओं के दूषणों को दूर कर, इनका परिष्कार कर इन्हें पुनः उपयोगी बनाने का विचार किया जाय तो लाभ हो सकता है। परन्तु राजकीय हस्तक्षेप के कारण और
 
वर्ण और जाति व्यवस्था का हम त्याग भी कर दें तो तत्त्वतः तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती। परन्तु इनका पर्याय खोजना और स्थापित करना तो अत्यन्त आवश्यक है । इस दृष्टि से हमें वर्ण और जाति की उपयोगिता क्या थी और उनके दूषण क्या थे इसका विचार करना होगा । दूषण का विचार करें तो दो बातें ध्यान में आती हैं । एक है ऊँच नीच का भेद और दूसरी है अस्पृश्यता । उपयोगिता का विचार करें तो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वर्ण और जाति से आचार और व्यवसाय की व्यवस्था और निश्चिति होती थी। तत्वतः वर्ण जन्म से नहीं अपितु गुण और कर्म से माने जाते थे परन्तु व्यवहार में जन्म से ही माने जाने लगे थे। वर्ण और जाति विवाह के लिये भी आवश्यक मानी जाती थी । वर्णान्तर और जात्यन्तर यद्यपि सम्भव था परन्तु नगण्य मात्रा में किया जाता था । स्थिर समाज के लिये, अर्थार्जन की निश्चितता और निश्चिंतता और संस्कृति और समृद्धि की सुरक्षा के लिये इनका उपयोग था । इन व्यवस्थाओं के दूषणों को दूर कर, इनका परिष्कार कर इन्हें पुनः उपयोगी बनाने का विचार किया जाय तो लाभ हो सकता है। परन्तु राजकीय हस्तक्षेप के कारण और
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मानसिक पूर्वाग्रहों के कारण वर्ण और जाति का मामला बहुत उलझ गया है। अब हमारे पास दो उपाय हैं । एक तो जनसमाज का प्रबोधन कर पूर्वाग्रह दूर करना और दूसरा पूर्ण रूप से नई शब्दावली के साथ विकल्प देना । विद्वजनों ने और समाजहितचिन्तकों ने दो में से एक की निश्चिति कर व्यवस्था बनाने की अनिवार्य आवश्यकता है। कदाचित पूर्ण रूप से नई वैकल्पिक व्यवस्था देना कम कठिन हो सकता है । सम्भव है कि सौ वर्ष बाद धार्मिक समाज पुनः पुरानी शब्दावली और संकल्पनाओं पर लौट आये । जो भी हम तय करें व्यवस्था शीघ्रातिशीघ्र बनानी चाहिये । यह व्यवस्था मुख्य रूप से अर्थार्जन हेतु व्यवसाय निश्चिति की होनी चाहिये । इस रूप में समाजव्यवस्था अर्थव्यवस्था के साथ जुडी हुई है । आज व्यवसाय के क्षेत्र में भी स्वैराचार ही है। स्वतन्त्रता मूल्यवान है परन्तु स्वतन्त्रता के अपने ही कुछ बन्धन होते हैं। उदाहरण के लिये स्वतन्त्रता के साथ स्वदायित्व भी अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। बिना दायित्व के स्वतन्त्रता सम्भव नहीं। स्वैराचार कोई बन्धन नहीं मानता । अर्थक्षेत्र में स्वतन्त्रता होनी चाहिये, स्वैराचार नहीं । समाज के लिये व्यक्ति का व्यवसाय निश्चित करने हेतु स्वतनत्रता और मर्यादा दोनों निश्चित करने की व्यवस्था होनी चाहिये । जैसे कि व्यक्ति अपने व्यवसाय का चयन करने के लिये तो स्वतन्त्र है परन्तु मनमर्जी से कभी भी बदलने के लिये नहीं । दूसरों का व्यवसाय छिन जाय या राष्ट्रीय सम्पत्ति की हानि हो इस प्रकार का आर्थिक व्यवहार व्यक्ति नहीं कर सकता । उदाहरण के लिये एक बहुत बडा कारखाना आरम्भ किया और सैंकड़ों लोगों के व्यवसाय छिन गये और उन्हें गाँव छोडकर नगर में जाकर झोपडी में रहना पडा और नौकरी करनी पड़ी यह आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अपराध है। स्वतन्त्रता के नामपर इसकी अनुमति नहीं मिल सकती । कभी भी व्यवसाय बदलने से भी अर्थक्षेत्र में हलचल हो ही जाती है।
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मानसिक पूर्वाग्रहों के कारण वर्ण और जाति का मामला बहुत उलझ गया है। अब हमारे पास दो उपाय हैं । एक तो जनसमाज का प्रबोधन कर पूर्वाग्रह दूर करना और दूसरा पूर्ण रूप से नई शब्दावली के साथ विकल्प देना । विद्वजनों ने और समाजहितचिन्तकों ने दो में से एक की निश्चिति कर व्यवस्था बनाने की अनिवार्य आवश्यकता है। कदाचित पूर्ण रूप से नई वैकल्पिक व्यवस्था देना कम कठिन हो सकता है । सम्भव है कि सौ वर्ष बाद धार्मिक समाज पुनः पुरानी शब्दावली और संकल्पनाओं पर लौट आये । जो भी हम तय करें व्यवस्था शीघ्रातिशीघ्र बनानी चाहिये । यह व्यवस्था मुख्य रूप से अर्थार्जन हेतु व्यवसाय निश्चिति की होनी चाहिये । इस रूप में समाजव्यवस्था अर्थव्यवस्था के साथ जुडी हुई है । आज व्यवसाय के क्षेत्र में भी स्वैराचार ही है। स्वतन्त्रता मूल्यवान है परन्तु स्वतन्त्रता के अपने ही कुछ बन्धन होते हैं। उदाहरण के लिये स्वतन्त्रता के साथ स्वदायित्व भी अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। बिना दायित्व के स्वतन्त्रता सम्भव नहीं। स्वैराचार कोई बन्धन नहीं मानता । अर्थक्षेत्र में स्वतन्त्रता होनी चाहिये, स्वैराचार नहीं । समाज के लिये व्यक्ति का व्यवसाय निश्चित करने हेतु स्वतनत्रता और मर्यादा दोनों निश्चित करने की व्यवस्था होनी चाहिये । जैसे कि व्यक्ति अपने व्यवसाय का चयन करने के लिये तो स्वतन्त्र है परन्तु मनमर्जी से कभी भी बदलने के लिये नहीं । दूसरों का व्यवसाय छिन जाय या राष्ट्रीय सम्पत्ति की हानि हो इस प्रकार का आर्थिक व्यवहार व्यक्ति नहीं कर सकता । उदाहरण के लिये एक बहुत बडा कारखाना आरम्भ किया और सैंकड़ों लोगोंं के व्यवसाय छिन गये और उन्हें गाँव छोडकर नगर में जाकर झोपडी में रहना पडा और नौकरी करनी पड़ी यह आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अपराध है। स्वतन्त्रता के नामपर इसकी अनुमति नहीं मिल सकती । कभी भी व्यवसाय बदलने से भी अर्थक्षेत्र में हलचल हो ही जाती है।
    
अध्ययन और व्यवसाय का भी परस्पर दायित्वपूर्ण सम्बन्ध होना चाहिये जो आज नहीं है। उदाहरण के लिये व्यक्ति इन्जिनीयरींग का अध्ययन करता है परन्तु व्यवसाय नहीं करता, डॉक्टर बनता है परन्तु व्यवसाय छापखाने का करता है। बाबूगीरी करता है परन्तु उसकी पढाई नहीं करता । ऐसा होने से विद्यार्थियों की पढाई के लिये परिवार का और समाज का जो पैसा खर्च होता है और विद्यार्थी की आयु के जो वर्ष व्यतीत होते हैं वे व्यर्थ जाते हैं। यह भी सही नहीं है। इसलिये सामाजिक स्तर पर अर्थनियोजन होना चाहिये । इसकी व्यवस्था बनानी होगी । उसके अनुसार शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी।
 
अध्ययन और व्यवसाय का भी परस्पर दायित्वपूर्ण सम्बन्ध होना चाहिये जो आज नहीं है। उदाहरण के लिये व्यक्ति इन्जिनीयरींग का अध्ययन करता है परन्तु व्यवसाय नहीं करता, डॉक्टर बनता है परन्तु व्यवसाय छापखाने का करता है। बाबूगीरी करता है परन्तु उसकी पढाई नहीं करता । ऐसा होने से विद्यार्थियों की पढाई के लिये परिवार का और समाज का जो पैसा खर्च होता है और विद्यार्थी की आयु के जो वर्ष व्यतीत होते हैं वे व्यर्थ जाते हैं। यह भी सही नहीं है। इसलिये सामाजिक स्तर पर अर्थनियोजन होना चाहिये । इसकी व्यवस्था बनानी होगी । उसके अनुसार शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी।
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मनुष्यजीवन अत्यन्त मूल्यवान है। भगवानने हमें अनेक अद्भुत शक्तियाँ दी हैं और असीम सम्भावनायें दी हैं। इन सम्भावनाओं को प्रकट करने के लिये और शक्तियों का विनियोग करने के लिये हमें बहुत कुछ करना होता है। जिस प्रकार से सुन्दर वस्त्र को धोना पडता है, प्रेस करना होता है, सुरक्षित रखना होता है, उत्तम अनाज और सब्जी को सावधानीपूर्वक उत्तम पौष्टिक, स्वादिष्ट, सात्त्विक भोजन में रूपान्तरित करना होता है उसी प्रकार हमारी क्षमताओं को भी उचित उपायों से निखारना और कसना होता है ।
 
मनुष्यजीवन अत्यन्त मूल्यवान है। भगवानने हमें अनेक अद्भुत शक्तियाँ दी हैं और असीम सम्भावनायें दी हैं। इन सम्भावनाओं को प्रकट करने के लिये और शक्तियों का विनियोग करने के लिये हमें बहुत कुछ करना होता है। जिस प्रकार से सुन्दर वस्त्र को धोना पडता है, प्रेस करना होता है, सुरक्षित रखना होता है, उत्तम अनाज और सब्जी को सावधानीपूर्वक उत्तम पौष्टिक, स्वादिष्ट, सात्त्विक भोजन में रूपान्तरित करना होता है उसी प्रकार हमारी क्षमताओं को भी उचित उपायों से निखारना और कसना होता है ।
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उदाहरण के लिये हमें शरीर रूपी श्रेष्ठ प्रकार का यन्त्र प्राप्त हुआ है। उसे साफ नहीं रखा, उसका रक्षण और पोषण नहीं किया और उसे कार्यकुशल नहीं बनाया तो उसकी क्षमतायें निरर्थक हो जायेंगी। भगवानने हमें शक्तिशाली मन और तेजस्वी बुद्धि दी है परन्तु उस मन को एकाग्र और शान्त नहीं बनाया और बुद्धि को कसा नहीं तो उनकी सार्थकता कैसे होगी ? यह विश्व अत्यन्त सुन्दर है परन्तु हमारे भीतर रसिकता ही न हो तो उस सौन्दर्य का आस्वाद कैसे ले पायेंगे ? अनेक कवियों और साहित्यकारों ने काव्यों और उपन्यासों की रचना की है परन्तु हमें यदि उन्हें पढना ही नहीं आया तो हमारे हृदय और बुद्धि का क्या करेंगे ? यदि सच्चरित्र लोगों से मिलकर, किसी के श्रेष्ठ कार्यों को देखकर, किसी की श्रेष्ठ और उत्तम उपलब्धि को देखकर हृदय गद्गदित नहीं हुआ तो हम कैसे मनुष्य कहे जायेंगे ?
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उदाहरण के लिये हमें शरीर रूपी श्रेष्ठ प्रकार का यन्त्र प्राप्त हुआ है। उसे साफ नहीं रखा, उसका रक्षण और पोषण नहीं किया और उसे कार्यकुशल नहीं बनाया तो उसकी क्षमतायें निरर्थक हो जायेंगी। भगवानने हमें शक्तिशाली मन और तेजस्वी बुद्धि दी है परन्तु उस मन को एकाग्र और शान्त नहीं बनाया और बुद्धि को कसा नहीं तो उनकी सार्थकता कैसे होगी ? यह विश्व अत्यन्त सुन्दर है परन्तु हमारे भीतर रसिकता ही न हो तो उस सौन्दर्य का आस्वाद कैसे ले पायेंगे ? अनेक कवियों और साहित्यकारों ने काव्यों और उपन्यासों की रचना की है परन्तु हमें यदि उन्हें पढना ही नहीं आया तो हमारे हृदय और बुद्धि का क्या करेंगे ? यदि सच्चरित्र लोगोंं से मिलकर, किसी के श्रेष्ठ कार्यों को देखकर, किसी की श्रेष्ठ और उत्तम उपलब्धि को देखकर हृदय गद्गदित नहीं हुआ तो हम कैसे मनुष्य कहे जायेंगे ?
    
अर्थात भगवान ने तो हमारी चारों ओर अद्भुत सुन्दर सृष्टि बनाई है, हमारे जीवन को उन्नत सम्भावनाओं से भर दिया है परन्तु हमें उसके मूल्य का ही पता नहीं है क्योंकि हमने अपने आपको उसके योग्य नहीं बनाया है। इसलिये श्रेष्ठ लोग हमें अपने जीवन को नियमन में ढालने का परामर्श देते हैं।
 
अर्थात भगवान ने तो हमारी चारों ओर अद्भुत सुन्दर सृष्टि बनाई है, हमारे जीवन को उन्नत सम्भावनाओं से भर दिया है परन्तु हमें उसके मूल्य का ही पता नहीं है क्योंकि हमने अपने आपको उसके योग्य नहीं बनाया है। इसलिये श्रेष्ठ लोग हमें अपने जीवन को नियमन में ढालने का परामर्श देते हैं।
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पश्चिम के प्रभाव के कारण भारत को आज इस बात का विस्मरण हो गया है। हम भी धीरे धीरे सर्व प्रकार का नियमन छोड रहे हैं । खानपान, वेशभूषा, मनोरंजन आदि में स्वैर हो रहे हैं । यह विकास नहीं है, हास है।
 
पश्चिम के प्रभाव के कारण भारत को आज इस बात का विस्मरण हो गया है। हम भी धीरे धीरे सर्व प्रकार का नियमन छोड रहे हैं । खानपान, वेशभूषा, मनोरंजन आदि में स्वैर हो रहे हैं । यह विकास नहीं है, हास है।
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अतः भारत के लोगों के व्यक्तिगत जीवन में नियम, संयम, सदाचार, दया, क्षमा, उदारता, स्नेह, मैत्रीभाव आदि आयें इसलिये प्रयास होने की आवश्यकता है। धर्मशिक्षा का यह प्रमुख अंग है। घर में, विद्यालय में और समाज में मातापिता, शिक्षक और सन्तमहात्मा लोगों को इसकी, शिक्षा दें ऐसा आग्रह होना चाहिये । वास्तव में ये तीनों होते ही हैं ऐसी शिक्षा देने के लिये । इन गुणों से युक्त जीवन ही मनुष्य का जीवन है अन्यथा वह पशुजीवन है।
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अतः भारत के लोगोंं के व्यक्तिगत जीवन में नियम, संयम, सदाचार, दया, क्षमा, उदारता, स्नेह, मैत्रीभाव आदि आयें इसलिये प्रयास होने की आवश्यकता है। धर्मशिक्षा का यह प्रमुख अंग है। घर में, विद्यालय में और समाज में मातापिता, शिक्षक और सन्तमहात्मा लोगोंं को इसकी, शिक्षा दें ऐसा आग्रह होना चाहिये । वास्तव में ये तीनों होते ही हैं ऐसी शिक्षा देने के लिये । इन गुणों से युक्त जीवन ही मनुष्य का जीवन है अन्यथा वह पशुजीवन है।
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व्यक्तिजीवन में नियमन कम कठिन हो इसलिये संचार माध्यम और सोशयलमीडिया, टीवी और विज्ञापन पर भारी मात्रा में नियन्त्रण होना आवश्यक है। यह काम शासन कर सकता है । मन को बहकाने वाली सामग्री और स्थितियों से लोगों की रक्षा के उपाय करना भी तो आवश्यक है।  
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व्यक्तिजीवन में नियमन कम कठिन हो इसलिये संचार माध्यम और सोशयलमीडिया, टीवी और विज्ञापन पर भारी मात्रा में नियन्त्रण होना आवश्यक है। यह काम शासन कर सकता है । मन को बहकाने वाली सामग्री और स्थितियों से लोगोंं की रक्षा के उपाय करना भी तो आवश्यक है।  
    
जीवन के नियमन का सन्देश भारत ही विश्व को दे सकता है।
 
जीवन के नियमन का सन्देश भारत ही विश्व को दे सकता है।

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