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शिक्षा व्यक्तिगत जीवन की और राष्ट्रजीवन की समस्‍यायें दूर करती है परन्तु हम देख रहे हैं कि आज शिक्षा स्वयं समस्या बन गई है। सामान्य जन से विद्व्जन शिक्षा से त्रस्त हैं। अनेक प्रकार के सांस्कृतिक और भौतिक संकटों का व्याप बढ़ रहा है। इसका कारण यह है कि विगत लगभग दो सौ वर्षों से भारत में शिक्षा की गाड़ी उल्टी पटरी पर चढ़ गई है।  
 
शिक्षा व्यक्तिगत जीवन की और राष्ट्रजीवन की समस्‍यायें दूर करती है परन्तु हम देख रहे हैं कि आज शिक्षा स्वयं समस्या बन गई है। सामान्य जन से विद्व्जन शिक्षा से त्रस्त हैं। अनेक प्रकार के सांस्कृतिक और भौतिक संकटों का व्याप बढ़ रहा है। इसका कारण यह है कि विगत लगभग दो सौ वर्षों से भारत में शिक्षा की गाड़ी उल्टी पटरी पर चढ़ गई है।  
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शिक्षा राष्ट्र की संस्कृति और जीवनशैली को सुदृढ़ बनाने का काम करती है। वह ऐसा कर सके इसलिए वह राष्ट्र की जीवनदृष्टि पर आधारित होती है, उसके साथ समसम्बन्ध बनाये रखती है। आज भारत की शिक्षा का यह सम्बन्ध बिखर गया है। शिक्षा जीवनशैली में, विचारशैली में इस प्रकार से परिवर्तन कर रही है कि हम अपनी ही जीवनशैली को नहीं चाहते। अपनी शैली के विषय में हम हीनताबोध से ग्रस्त हो गये हैं और जिन्होंने हमारे राष्ट्रजीवन पर बाह्य और आन्तरिक आघात कर उसे छिन्न-विच्छिन्न करने का प्रयास किया, उनकी ही शैली को अपनाने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा जीवन दो विपरीत धाराओं में बह रहा है। इससे ही सांस्कृतिक और भौतिक संकट निर्माण हो रहे हैं। युगों से अखण्ड बहती आई हमारी ज्ञानधारा आज कलुषित हो गई है। ज्ञान के क्षेत्र में धार्मिक और अधार्मिक ऐसे दो भाग हो गये हैं। धार्मिक ज्ञानधारा के सामने आज प्रश्नार्थ खड़े हो गये हैं। धार्मिक और अधार्मिक का मिश्रण हो गया है। चारों ओर सम्भ्रम निर्माण हुआ है। उचित और अनुचित, सही और गलत, करणीय और अकरणीय का विवेक लुप्त हो गया है। लोग त्रस्त हैं परन्तु त्रास का कारण नहीं जानते हैं, और त्रास के कारण को ही सुख का स्रोत मानते हैं। धर्म और ज्ञान से मार्गदर्शन प्राप्त करना भूलकर सरकार से सहायता की कामना और याचना कर रहे हैं।
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शिक्षा राष्ट्र की संस्कृति और जीवनशैली को सुदृढ़ बनाने का काम करती है। वह ऐसा कर सके अतः वह राष्ट्र की जीवनदृष्टि पर आधारित होती है, उसके साथ समसम्बन्ध बनाये रखती है। आज भारत की शिक्षा का यह सम्बन्ध बिखर गया है। शिक्षा जीवनशैली में, विचारशैली में इस प्रकार से परिवर्तन कर रही है कि हम अपनी ही जीवनशैली को नहीं चाहते। अपनी शैली के विषय में हम हीनताबोध से ग्रस्त हो गये हैं और जिन्होंने हमारे राष्ट्रजीवन पर बाह्य और आन्तरिक आघात कर उसे छिन्न-विच्छिन्न करने का प्रयास किया, उनकी ही शैली को अपनाने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा जीवन दो विपरीत धाराओं में बह रहा है। इससे ही सांस्कृतिक और भौतिक संकट निर्माण हो रहे हैं। युगों से अखण्ड बहती आई हमारी ज्ञानधारा आज कलुषित हो गई है। ज्ञान के क्षेत्र में धार्मिक और अधार्मिक ऐसे दो भाग हो गये हैं। धार्मिक ज्ञानधारा के सामने आज प्रश्नार्थ खड़े हो गये हैं। धार्मिक और अधार्मिक का मिश्रण हो गया है। चारों ओर सम्भ्रम निर्माण हुआ है। उचित और अनुचित, सही और गलत, करणीय और अकरणीय का विवेक लुप्त हो गया है। लोग त्रस्त हैं परन्तु त्रास का कारण नहीं जानते हैं, और त्रास के कारण को ही सुख का स्रोत मानते हैं। धर्म और ज्ञान से मार्गदर्शन प्राप्त करना भूलकर सरकार से सहायता की कामना और याचना कर रहे हैं।
    
'धन से ही सारे सुख प्राप्त होंगे' ऐसा विचार कर येनकेन प्रकारेण धनप्राप्ति करने के इच्छुक हो रहे हैं। इस स्थिति में हम आचार्यों का स्वनिर्धारित दायित्व है कि इस संकट का निराकरण कैसे हो, इसका चिन्तन करें और उपाय योजना भी करें।<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १) - अध्याय १,  
 
'धन से ही सारे सुख प्राप्त होंगे' ऐसा विचार कर येनकेन प्रकारेण धनप्राप्ति करने के इच्छुक हो रहे हैं। इस स्थिति में हम आचार्यों का स्वनिर्धारित दायित्व है कि इस संकट का निराकरण कैसे हो, इसका चिन्तन करें और उपाय योजना भी करें।<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १) - अध्याय १,  
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== शिक्षा धर्म सिखाती है ==
 
== शिक्षा धर्म सिखाती है ==
इसलिए मनुष्य के लिये शिक्षा अनिवार्य है। मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने वाले धर्म को सिखाने वाली शिक्षा के अनेक गौण आयाम हैं जो व्यवहारजीवन के लिये अत्यन्त आवश्यक हैं। गौण होने का अर्थ वे कम महत्वपूर्ण हैं ऐसा नहीं है। उसका अर्थ यह है कि वे सब मुख्य बात के अविरोधी होने चाहिये अर्थात धर्म के अविरोधी होने चाहिये। उदाहरण के लिये मनुष्य को अन्न वस्त्र की अनिवार्य आवश्यकता है | मनुष्य को अन्न वस्त्र अन्य प्राणियों के तरह बिना प्रयास किये प्राप्त नहीं होते हैं। पशुओं को भी अपना अन्न प्राप्त करने के लिये कहीं जाना पड़ता है, कभी संघर्ष करना पड़ता है, कभी संकटों का सामना करना पड़ता है यह बात सत्य है, परन्तु एक बार प्राप्त कर लेने के बाद उसे काटना, छीलना या पकाना नहीं पड़ता है। प्राणियों को वस्त्र पहनने नहीं पड़ते हैं क्योंकि शीलरक्षा या शरीररक्षा का प्रश्न उनके लिये नहीं है। निवास के लिये केवल पक्षी को घोंसला बनाना पड़ता है। शेष सारे प्राणी या तो प्रकृति निर्मित स्थानों में अथवा मनुष्य निर्मित स्थानों में रहते हैं। गुफा और गोशाला इसके क्रमश: उदाहरण हैं। मनुष्य को अपनी इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्रयास करने होते हैं। ऐसे प्रयासों के लिये बहुत कुछ सीखना होता है। जैसे कि कपड़ा बुनना, अनाज उगाना, भोजन पकाना, घर बांधना, घर बनाने के सामान का उत्पादन करना आदि। यह उसकी औपचारिक अनौपचारिक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। मनुष्य समाज बनाकर रहता है। साथ रहना है तो अनेक व्यवस्थायें करनी होती हैं, नियम बनाने होते हैं। इन व्यवस्थाओं को बनाना भी सीखना ही होता है। यथा कानून और न्याय, व्यापार और यात्रा आदि। मनुष्य में जिज्ञासा होती है। वह बहुत कुछ जानना चाहता है। जिज्ञासा समाधान के लिये वह निरीक्षण करता है, प्रयोग करता है, प्रयोग के लिये आवश्यक उपकरण बनाता है । इसके लिये उसे बहुत कुछ सीखना होता है। मनुष्य सृष्टि के रहस्यों को जानना चाहता है, अपने आपको जानना चाहता है। जानने के लिये वह विचार करता है, ध्यान करता है, अनुभव करता है। यह सब भी उसे सीखना ही पड़ता है। अर्थात धर्माचरण सीखने के साथ साथ उसे असंख्य बातें अपना जीवन चलाने के लिये सीखनी होती हैं। सीखना उसके जीवन का अविभाज्य अंग ही बन जाता है। इसलिये शिक्षा का बहुत बड़ा शास्त्र निर्माण हुआ है। धर्मशास्त्र के समान ही शिक्षाशास्त्र अत्यन्त व्यापक और आधारभूत शास्त्र है। मनुष्य के व्यक्तिगत, सामाजिक, सृष्टित और पारमार्थिक व्यवहारों को चलाने के लिये वह अनेक प्रकार के शास्त्रों की रचना करता है, अनेक प्रकार की व्यवस्थायें बनाता है। इसके लिये उसे काम करना होता है, विचार करना होता है, अनुभव करना होता है । ये सब उसकी शिक्षा का बहुत बड़ा हिस्सा है। संक्षेप में मनुष्य का जीवन शिक्षारहित होता ही नहीं है। हम जब शिक्षा का विचार करने के लिये उद्यत हुए हैं तब इन तथ्यों को हमें ठीक से समझ लेने की आवश्यकता है।
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अतः मनुष्य के लिये शिक्षा अनिवार्य है। मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने वाले धर्म को सिखाने वाली शिक्षा के अनेक गौण आयाम हैं जो व्यवहारजीवन के लिये अत्यन्त आवश्यक हैं। गौण होने का अर्थ वे कम महत्वपूर्ण हैं ऐसा नहीं है। उसका अर्थ यह है कि वे सब मुख्य बात के अविरोधी होने चाहिये अर्थात धर्म के अविरोधी होने चाहिये। उदाहरण के लिये मनुष्य को अन्न वस्त्र की अनिवार्य आवश्यकता है | मनुष्य को अन्न वस्त्र अन्य प्राणियों के तरह बिना प्रयास किये प्राप्त नहीं होते हैं। पशुओं को भी अपना अन्न प्राप्त करने के लिये कहीं जाना पड़ता है, कभी संघर्ष करना पड़ता है, कभी संकटों का सामना करना पड़ता है यह बात सत्य है, परन्तु एक बार प्राप्त कर लेने के बाद उसे काटना, छीलना या पकाना नहीं पड़ता है। प्राणियों को वस्त्र पहनने नहीं पड़ते हैं क्योंकि शीलरक्षा या शरीररक्षा का प्रश्न उनके लिये नहीं है। निवास के लिये केवल पक्षी को घोंसला बनाना पड़ता है। शेष सारे प्राणी या तो प्रकृति निर्मित स्थानों में अथवा मनुष्य निर्मित स्थानों में रहते हैं। गुफा और गोशाला इसके क्रमश: उदाहरण हैं। मनुष्य को अपनी इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्रयास करने होते हैं। ऐसे प्रयासों के लिये बहुत कुछ सीखना होता है। जैसे कि कपड़ा बुनना, अनाज उगाना, भोजन पकाना, घर बांधना, घर बनाने के सामान का उत्पादन करना आदि। यह उसकी औपचारिक अनौपचारिक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। मनुष्य समाज बनाकर रहता है। साथ रहना है तो अनेक व्यवस्थायें करनी होती हैं, नियम बनाने होते हैं। इन व्यवस्थाओं को बनाना भी सीखना ही होता है। यथा कानून और न्याय, व्यापार और यात्रा आदि। मनुष्य में जिज्ञासा होती है। वह बहुत कुछ जानना चाहता है। जिज्ञासा समाधान के लिये वह निरीक्षण करता है, प्रयोग करता है, प्रयोग के लिये आवश्यक उपकरण बनाता है । इसके लिये उसे बहुत कुछ सीखना होता है। मनुष्य सृष्टि के रहस्यों को जानना चाहता है, अपने आपको जानना चाहता है। जानने के लिये वह विचार करता है, ध्यान करता है, अनुभव करता है। यह सब भी उसे सीखना ही पड़ता है। अर्थात धर्माचरण सीखने के साथ साथ उसे असंख्य बातें अपना जीवन चलाने के लिये सीखनी होती हैं। सीखना उसके जीवन का अविभाज्य अंग ही बन जाता है। इसलिये शिक्षा का बहुत बड़ा शास्त्र निर्माण हुआ है। धर्मशास्त्र के समान ही शिक्षाशास्त्र अत्यन्त व्यापक और आधारभूत शास्त्र है। मनुष्य के व्यक्तिगत, सामाजिक, सृष्टित और पारमार्थिक व्यवहारों को चलाने के लिये वह अनेक प्रकार के शास्त्रों की रचना करता है, अनेक प्रकार की व्यवस्थायें बनाता है। इसके लिये उसे काम करना होता है, विचार करना होता है, अनुभव करना होता है । ये सब उसकी शिक्षा का बहुत बड़ा हिस्सा है। संक्षेप में मनुष्य का जीवन शिक्षारहित होता ही नहीं है। हम जब शिक्षा का विचार करने के लिये उद्यत हुए हैं तब इन तथ्यों को हमें ठीक से समझ लेने की आवश्यकता है।
    
== शिक्षा का समाज जीवन में स्थान ==
 
== शिक्षा का समाज जीवन में स्थान ==
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दो अपरिचित व्यक्ति साथ साथ खड़े हों तो वे समाज नहीं बनते हैं। वे मित्रता के सम्बन्ध से जुड़े हों तो समाज बनता है। दोनों एक ही पिता की सन्तान हों तो भाई बनते हैं। तब वह समाज होता है। दो अपरिचित स्त्री और पुरुष साथ साथ खड़े हों और साथ साथ काम भी करते हों तो वे समाज नहीं बनते। वे विवाह संस्कार से जुड़े हों तो परिवार बनते हैं और यह परिवार ही समाज की इकाई है। समाज व्यक्तियों की इकाई से नहीं बनता, परिवार की इकाई से बनता है।
 
दो अपरिचित व्यक्ति साथ साथ खड़े हों तो वे समाज नहीं बनते हैं। वे मित्रता के सम्बन्ध से जुड़े हों तो समाज बनता है। दोनों एक ही पिता की सन्तान हों तो भाई बनते हैं। तब वह समाज होता है। दो अपरिचित स्त्री और पुरुष साथ साथ खड़े हों और साथ साथ काम भी करते हों तो वे समाज नहीं बनते। वे विवाह संस्कार से जुड़े हों तो परिवार बनते हैं और यह परिवार ही समाज की इकाई है। समाज व्यक्तियों की इकाई से नहीं बनता, परिवार की इकाई से बनता है।
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आजकल बिना विवाह के स्त्रीपुरुष साथ साथ रहते हैं। वे स्त्री और पुरुष का कामयुक्त व्यवहार भी करते हैं परन्तु वे पति पत्नी नहीं होते हैं, केवल साथीदार होते हैं। यह विवाह नहीं है, आन्तरिक सम्बन्ध भी नहीं है इसलिए वे समाज भी नहीं बनते हैं।
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आजकल बिना विवाह के स्त्रीपुरुष साथ साथ रहते हैं। वे स्त्री और पुरुष का कामयुक्त व्यवहार भी करते हैं परन्तु वे पति पत्नी नहीं होते हैं, केवल साथीदार होते हैं। यह विवाह नहीं है, आन्तरिक सम्बन्ध भी नहीं है अतः वे समाज भी नहीं बनते हैं।
    
विवाह भी केवल तान्त्रिक व्यवस्था नहीं है जो केवल कानून पर आधारित होती है। वह एकात्म सम्बन्ध है। उस सम्बन्ध के आधार पर स्त्री और पुरुष साथ रहते हैं तब परिवार बनता है। परिवार की इकाइयाँ जब साथ साथ रहती हैं तो उनमें भी एकात्म सम्बन्ध का सूत्र ही लागू है। इस प्रकार से जो समाज बनता है वह शिक्षा का आधार है। समाज के स्तर पर एकात्म सम्बन्ध की स्वाभाविकता और आवश्यकता की जो शिक्षा होती है वह समाज की आवश्यकता है। समाज को जब यह शिक्षा मिलती है तब सामुदायिक जीवन की सारी व्यवस्थायें परिवारभावना से अनुप्राणित होती हैं। यह तत्व गूढ़ लगता है क्योंकि उसका अनुभव करना किंचित कठिन होता।
 
विवाह भी केवल तान्त्रिक व्यवस्था नहीं है जो केवल कानून पर आधारित होती है। वह एकात्म सम्बन्ध है। उस सम्बन्ध के आधार पर स्त्री और पुरुष साथ रहते हैं तब परिवार बनता है। परिवार की इकाइयाँ जब साथ साथ रहती हैं तो उनमें भी एकात्म सम्बन्ध का सूत्र ही लागू है। इस प्रकार से जो समाज बनता है वह शिक्षा का आधार है। समाज के स्तर पर एकात्म सम्बन्ध की स्वाभाविकता और आवश्यकता की जो शिक्षा होती है वह समाज की आवश्यकता है। समाज को जब यह शिक्षा मिलती है तब सामुदायिक जीवन की सारी व्यवस्थायें परिवारभावना से अनुप्राणित होती हैं। यह तत्व गूढ़ लगता है क्योंकि उसका अनुभव करना किंचित कठिन होता।

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