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{{One source}}जिहादी आतंकवाद ने आज विश्व में वैसी ही कुख्याति हासिल कर ली है, जैसे पचास वर्ष पहले कम्युनिज्म ने की थी। पूरी दुनिया के स्वतंत्रताप्रेमी, लोकतांत्रिक, जानकार लोग हर देश में कम्युनिज्म के प्रभाव या प्रचार से साशंकित रहते थे । सच पूछे, तो यह भी एक कारण था कि उसी बीच उभरती एक नई हानिकारक वैश्विक प्रवृत्ति पर ध्यान नहीं दिया जा सका । यह प्रवृत्ति थी इस्लामी विचारधारा से प्रेरित उग्रवादी, आतंकवादी गुटों का उभार ।
 
{{One source}}जिहादी आतंकवाद ने आज विश्व में वैसी ही कुख्याति हासिल कर ली है, जैसे पचास वर्ष पहले कम्युनिज्म ने की थी। पूरी दुनिया के स्वतंत्रताप्रेमी, लोकतांत्रिक, जानकार लोग हर देश में कम्युनिज्म के प्रभाव या प्रचार से साशंकित रहते थे । सच पूछे, तो यह भी एक कारण था कि उसी बीच उभरती एक नई हानिकारक वैश्विक प्रवृत्ति पर ध्यान नहीं दिया जा सका । यह प्रवृत्ति थी इस्लामी विचारधारा से प्रेरित उग्रवादी, आतंकवादी गुटों का उभार ।
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अरब में तेल मिलने के बाद समय के साथ कुछ अरब देशों में अकूत धन भी जमा होने लगा। इस से इस्लामी अस्मिता, फिर इस्लामवाद और अंततः जिहादी भावना को बढ़ने, प्रचार पाने में मदद मिली। इसी के अगले चरण में वह पुरानी साम्राज्यवादी, विस्तारवादी उग्र प्रवृत्ति जो लंबे समय से दब गई थी (क्योंकि उस के लिए कोई राजनीतिक, आर्थिक, सैनिक बल मुस्लिम देशों में नहीं था), फिर से सिर उठाने लगी।
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अरब में तेल मिलने के बाद समय के साथ कुछ अरब देशों में अकूत धन भी जमा होने लगा। इस से इस्लामी अस्मिता, फिर इस्लामवाद और अंततः जिहादी भावना को बढ़ने, प्रचार पाने में सहायता मिली। इसी के अगले चरण में वह पुरानी साम्राज्यवादी, विस्तारवादी उग्र प्रवृत्ति जो लंबे समय से दब गई थी (क्योंकि उस के लिए कोई राजनीतिक, आर्थिक, सैनिक बल मुस्लिम देशों में नहीं था), फिर से सिर उठाने लगी।
    
आधुनिक युग में जिहाद आतंकवाद का आरंभ पश्चिम एशिया से हुआ। 'ब्लैक सेप्टेंबर' के आतंक से दुनिया में इस राजनीति की पहचान बनी। म्यूनिख ओलंपिक (१९७२) में इजराइली खिलाड़ियों की हत्या से फिलीस्तीनी आतंकवाद विश्व-कुख्यात हुआ। फिलीस्तीनी आंदोलन (पी.एल.ओ.) और इस के नेता यासिर अराफात लंबे समय तक खुले तौर पर आतंकवादी ही थे। बाद में, इन्हें पीछे छोड़ने वाले संगठन फतह और हमास भी आतंकी रणनीति में ही आगे बढ़े। फिलीस्तीनी आतंकवाद के बाद १९७९ में ईरान में अयातुल्ला खुमैनी द्वारा तख्तापलट और इस्लामी तानाशाही, उस की प्रतिद्वंदिता में सऊदी अरब द्वारा दुनिया भर में बहावी सुन्नी इस्लाम का प्रसार, १९८० के दशक में अफगानिस्तान में सोवियत सेना के विरुद्ध पाकिस्तान से संचालित अंतर्राष्ट्रीय जिहादी मोर्चेबंदी, ओसामा बिन लादेन व 'अल कायदा' का उदय और दुनिया भर में आतंकी हमले, अफगानिस्तान में तालिबान राज, कश्मीर में जिहादी घुसपैठ,  विमान अपहरण, कारगिल हमला, फिर दिल्ली, कोलकाता, हैदराबाद, मुंबई, गोधरा से लेकर भारतीय संसद तक पर अंतहीन जिहादी हमले, उधर न्यूयॉर्क, मॉस्को, लंदन, पेरिस, बाली, ढाका, आदि तमाम यूरोपीय, एशियाई नगरों पर आतंकी कहर, नाइजीरिया में बोको हराम तथा सीरिया-ईराक में इस्लामी स्टेट के साथ जिहादी आतंकवाद आज सब से बड़ी अंतर्राष्ट्रीय समस्या बना हुआ है । तरह-तरह के नाम और रूप में जिहादी राजनीति अब दुनिया के हर क्षेत्र में कमो-बेश सक्रिय है। हर कहीं इस्लाम, कुरान और प्रोफेट मुहम्मद का नाम ले-लेकर विभत्स कारनामे करने की एक पूरी समाप्त नहीं होने वाली श्रृंखला है। इस की खुली चर्चा न करना और लोगों को पूरी जानकारी न होना जनता को असुरक्षित छोड़ देने सा है। इस पर ध्यान देना चाहिए।
 
आधुनिक युग में जिहाद आतंकवाद का आरंभ पश्चिम एशिया से हुआ। 'ब्लैक सेप्टेंबर' के आतंक से दुनिया में इस राजनीति की पहचान बनी। म्यूनिख ओलंपिक (१९७२) में इजराइली खिलाड़ियों की हत्या से फिलीस्तीनी आतंकवाद विश्व-कुख्यात हुआ। फिलीस्तीनी आंदोलन (पी.एल.ओ.) और इस के नेता यासिर अराफात लंबे समय तक खुले तौर पर आतंकवादी ही थे। बाद में, इन्हें पीछे छोड़ने वाले संगठन फतह और हमास भी आतंकी रणनीति में ही आगे बढ़े। फिलीस्तीनी आतंकवाद के बाद १९७९ में ईरान में अयातुल्ला खुमैनी द्वारा तख्तापलट और इस्लामी तानाशाही, उस की प्रतिद्वंदिता में सऊदी अरब द्वारा दुनिया भर में बहावी सुन्नी इस्लाम का प्रसार, १९८० के दशक में अफगानिस्तान में सोवियत सेना के विरुद्ध पाकिस्तान से संचालित अंतर्राष्ट्रीय जिहादी मोर्चेबंदी, ओसामा बिन लादेन व 'अल कायदा' का उदय और दुनिया भर में आतंकी हमले, अफगानिस्तान में तालिबान राज, कश्मीर में जिहादी घुसपैठ,  विमान अपहरण, कारगिल हमला, फिर दिल्ली, कोलकाता, हैदराबाद, मुंबई, गोधरा से लेकर भारतीय संसद तक पर अंतहीन जिहादी हमले, उधर न्यूयॉर्क, मॉस्को, लंदन, पेरिस, बाली, ढाका, आदि तमाम यूरोपीय, एशियाई नगरों पर आतंकी कहर, नाइजीरिया में बोको हराम तथा सीरिया-ईराक में इस्लामी स्टेट के साथ जिहादी आतंकवाद आज सब से बड़ी अंतर्राष्ट्रीय समस्या बना हुआ है । तरह-तरह के नाम और रूप में जिहादी राजनीति अब दुनिया के हर क्षेत्र में कमो-बेश सक्रिय है। हर कहीं इस्लाम, कुरान और प्रोफेट मुहम्मद का नाम ले-लेकर विभत्स कारनामे करने की एक पूरी समाप्त नहीं होने वाली श्रृंखला है। इस की खुली चर्चा न करना और लोगों को पूरी जानकारी न होना जनता को असुरक्षित छोड़ देने सा है। इस पर ध्यान देना चाहिए।
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# इस अर्थ में भी आज इस्लामवादी विचारधारा की स्थिति १९७० के दशक वाली कम्युनिस्ट विचारधारा के समान है। तब सारी दुनिया के कम्युनिस्ट मार्क्सवाद को स्वयंसिद्ध विज्ञान मानते थे । तदनुरूप अमेरिका, यूरोप के पूँजीवाद के नष्ट होने तथा कम्युनिस्ट विश्व-विजय का अंधविश्वास पालते थे। किंतु दिनो-दिन वास्तविकता उन्हें मुश्किल में डाल रही थी, क्योंकि मार्क्सवाद-लेनिनवाद का प्रत्येक मूलभूत सूत्र निरर्थक होता दिख रहा था । छल-बल और सेंसरशिप से ही कम्युनिस्ट प्रगति के झूठे विवरण दुनिया भर में फैलाए जाते थे। उसी प्रकार, आज इस्लामवाद भी अपने अंधविश्वासों का बचाव करने में दिनों-दिन निर्बल दिख रहा है। सदैव हिंसा की भाषा इसी का प्रमाण है। तर्क और विवेक से सिनेमा, फोटोग्राफी, हजामत या कार्टून बनाने का विरोध और तीन तलाक या हलाल जैसी गंदी प्रथा का समर्थन कैसे किया जा सकता है? जैसे-तैसे कुछ कहा भी जाए तो उसे कौन मानेगा? निश्चय ही कोई मुसलमान भी स्वयं ऐसे तर्क नहीं देगा। इसीलिए एक ओर आज अनेक इस्लामी निर्देशों, आदेशों को दरकिनार कर लाखों मुस्लिम न केवल सिनेमा देखते हैं, संगीत सुनते हैं, चित्र बनाते हैं, दर्शन और साहित्य पढ़ते हैं, क्लीन शेव करते और पश्चिमी पोशाकें पहनते हैं, लोकतांत्रिक कानून मानते हैं और इस प्रकार व्यवहार में शरीयत की उपेक्षा करते हैं। तो दूसरी ओर, इस्लामी कट्टरपंथी अपने मध्ययुगीन ‘एक मात्र सत्य' को पूरी दुनिया पर बलपूर्वक लागू करने के लिए जिहादी दस्ते बनाते हैं । दोनों ही प्रक्रियाएं चल रही हैं, बल्कि अपने-अपने तरीके से तीव्र हो रही हैं। इन का समाधान इस्लामी विश्व में (१९८० के दशक वाले सोवियत रूस जैसे) किसी ग्लासनोस्त और पेरेखोइका का प्रतीक्षा कर रहा है। स्वयं अरब देशों में इस्लामी कट्टरता के कम आंदोलन इसी का संकेत है।
 
# इस अर्थ में भी आज इस्लामवादी विचारधारा की स्थिति १९७० के दशक वाली कम्युनिस्ट विचारधारा के समान है। तब सारी दुनिया के कम्युनिस्ट मार्क्सवाद को स्वयंसिद्ध विज्ञान मानते थे । तदनुरूप अमेरिका, यूरोप के पूँजीवाद के नष्ट होने तथा कम्युनिस्ट विश्व-विजय का अंधविश्वास पालते थे। किंतु दिनो-दिन वास्तविकता उन्हें मुश्किल में डाल रही थी, क्योंकि मार्क्सवाद-लेनिनवाद का प्रत्येक मूलभूत सूत्र निरर्थक होता दिख रहा था । छल-बल और सेंसरशिप से ही कम्युनिस्ट प्रगति के झूठे विवरण दुनिया भर में फैलाए जाते थे। उसी प्रकार, आज इस्लामवाद भी अपने अंधविश्वासों का बचाव करने में दिनों-दिन निर्बल दिख रहा है। सदैव हिंसा की भाषा इसी का प्रमाण है। तर्क और विवेक से सिनेमा, फोटोग्राफी, हजामत या कार्टून बनाने का विरोध और तीन तलाक या हलाल जैसी गंदी प्रथा का समर्थन कैसे किया जा सकता है? जैसे-तैसे कुछ कहा भी जाए तो उसे कौन मानेगा? निश्चय ही कोई मुसलमान भी स्वयं ऐसे तर्क नहीं देगा। इसीलिए एक ओर आज अनेक इस्लामी निर्देशों, आदेशों को दरकिनार कर लाखों मुस्लिम न केवल सिनेमा देखते हैं, संगीत सुनते हैं, चित्र बनाते हैं, दर्शन और साहित्य पढ़ते हैं, क्लीन शेव करते और पश्चिमी पोशाकें पहनते हैं, लोकतांत्रिक कानून मानते हैं और इस प्रकार व्यवहार में शरीयत की उपेक्षा करते हैं। तो दूसरी ओर, इस्लामी कट्टरपंथी अपने मध्ययुगीन ‘एक मात्र सत्य' को पूरी दुनिया पर बलपूर्वक लागू करने के लिए जिहादी दस्ते बनाते हैं । दोनों ही प्रक्रियाएं चल रही हैं, बल्कि अपने-अपने तरीके से तीव्र हो रही हैं। इन का समाधान इस्लामी विश्व में (१९८० के दशक वाले सोवियत रूस जैसे) किसी ग्लासनोस्त और पेरेखोइका का प्रतीक्षा कर रहा है। स्वयं अरब देशों में इस्लामी कट्टरता के कम आंदोलन इसी का संकेत है।
 
# मोरक्को, सऊदी अरब, मलेशिया जैसे कुछ मुस्लिम देशों में और दुनिया भर के मुस्लिम लेखकों, पत्रकारों में इस पर विचार और संघर्ष हो रहा है कि इस्लामी किताबों के हिंसा के आवाहन वाले और अशोभनीय अंशों को किसी न किसी रूप में त्याग दिया जाए। एक महत्वपूर्ण इस्लामी देश मोरक्को के युवा शासक किंग मुहम्मद छठवें ने भी इस्लामी विधानों में स्पष्ट सुधार का प्रयत्न आरंभ किया है। उन्होंने २००४ में अपने देश में परिवार संबंधी 'मुदवाना' नामक एक नई कानून संहिता लागू की । इस में स्त्रियों को अधिक अधिकार दिए गए हैं । इस के अनुसार बहु-पत्नी प्रथा पर व्यवहार में कड़े प्रतिबंध लगा दिए गए हैं। यह सब स्पष्टतः पारंपरिक इस्लामी शरीयत नियमों से भिन्न हैं। उन्होंने राज्यनीति में लोकतंत्र को भी बढ़ावा देने का कार्य आरंभ किया है। कट्टरपंथियों ने इन प्रयासों का विरोध भी किया है। इसी तरह सऊदी अरब के एक सुधारवादी मौलाना मंसूर अल-नोगीदान ने आवाहन किया है कि इस्लामी मूल विश्वासों में सुधार अपेक्षित है। उन के अपने शब्दों में, 'इस्लाम में सुधार की आवश्यकता है । इस के लिए ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता है जिस में मार्टिन लूथर जैसा साहस हो । ... यह इस्लाम के भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है।' उन के विचार में कुरान की पुनर्व्याख्या करके यह घोषित करना आवश्यक है कि अल्लाह सभी धर्मों के श्रद्धालुओं को प्यार करता है, केवल इस्लाम को मानने वालों को ही नहीं । मंसूर इस विचार का विरोध करने वाले प्रभावी उलेमा को चुनौती देना भी आवश्यक समझते हैं। सीरिया के विद्वान मुहम्मद शाहरूर ने भी इस्लाम में सुधार के प्रश्न को मजबूती से उठाया है। इस्लाम के संस्थापक और इतिहास के अध्ययन से उन का मानना है कि प्रोफेट मुहम्मद ने जो राज्य स्थापित करने की कोशिश की, वह विफल रही थी। उन का बनाया राज्य तो खत्म हो गया, पर उन का संदेश अभी भी जीवित है । इसलिए मजहब और राज्य नीति में अंतर स्थापित करना चाहिए । कई यूरोपीय देशों में इस्लाम से मुक्त मुस्लिम भी संगठित हो कर अपनी आवाज उठा रहे हैं कि दूसरे धर्मों की तरह मुस्लिमों के बीच भी नास्तिकों या स्वतंत्र विचार वालों को सामान्य अधिकार मिले। अभी तक मुस्लिम समाजों में इस्लाम छोड़ने की बात करना मौत को आमंत्रण देना है, क्योंकि इस्लाम में यही सजा निर्धारित है। इस तरह के सुधारवादी, सेक्यूलर प्रयास अनेकानेक मुस्लिम लेखकों, विचारकों द्वारा भी हो रहे हैं। कई लोग अनाम रहकर यह कार्य कर रहे हैं क्योंकि उन्हें इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा मारे जाने का सीधा खतरा है । इब्न बराक, तसलीमा नसरीन, वफा सुलतान, अय्यान हिरसी अली, जैसे कुछ नाम तो जाने-माने हैं। पर और भी मुस्लिम इस दिशा में काम कर रहे हैं। उन से पता चलता है कि इस्लाम संबंधी आलोचनात्मक विमर्श आगे बढ़ रहा है। यह कहीं न कहीं मुस्लिम मानस में हो रहे मंथन का प्रतिबिंब है । कट्टरपंथियों के हाथों मौत का भय न रहे तो यह विचार-विमर्श स्वयं आशातीत परिणामों तक पहुँच सकता है।
 
# मोरक्को, सऊदी अरब, मलेशिया जैसे कुछ मुस्लिम देशों में और दुनिया भर के मुस्लिम लेखकों, पत्रकारों में इस पर विचार और संघर्ष हो रहा है कि इस्लामी किताबों के हिंसा के आवाहन वाले और अशोभनीय अंशों को किसी न किसी रूप में त्याग दिया जाए। एक महत्वपूर्ण इस्लामी देश मोरक्को के युवा शासक किंग मुहम्मद छठवें ने भी इस्लामी विधानों में स्पष्ट सुधार का प्रयत्न आरंभ किया है। उन्होंने २००४ में अपने देश में परिवार संबंधी 'मुदवाना' नामक एक नई कानून संहिता लागू की । इस में स्त्रियों को अधिक अधिकार दिए गए हैं । इस के अनुसार बहु-पत्नी प्रथा पर व्यवहार में कड़े प्रतिबंध लगा दिए गए हैं। यह सब स्पष्टतः पारंपरिक इस्लामी शरीयत नियमों से भिन्न हैं। उन्होंने राज्यनीति में लोकतंत्र को भी बढ़ावा देने का कार्य आरंभ किया है। कट्टरपंथियों ने इन प्रयासों का विरोध भी किया है। इसी तरह सऊदी अरब के एक सुधारवादी मौलाना मंसूर अल-नोगीदान ने आवाहन किया है कि इस्लामी मूल विश्वासों में सुधार अपेक्षित है। उन के अपने शब्दों में, 'इस्लाम में सुधार की आवश्यकता है । इस के लिए ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता है जिस में मार्टिन लूथर जैसा साहस हो । ... यह इस्लाम के भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है।' उन के विचार में कुरान की पुनर्व्याख्या करके यह घोषित करना आवश्यक है कि अल्लाह सभी धर्मों के श्रद्धालुओं को प्यार करता है, केवल इस्लाम को मानने वालों को ही नहीं । मंसूर इस विचार का विरोध करने वाले प्रभावी उलेमा को चुनौती देना भी आवश्यक समझते हैं। सीरिया के विद्वान मुहम्मद शाहरूर ने भी इस्लाम में सुधार के प्रश्न को मजबूती से उठाया है। इस्लाम के संस्थापक और इतिहास के अध्ययन से उन का मानना है कि प्रोफेट मुहम्मद ने जो राज्य स्थापित करने की कोशिश की, वह विफल रही थी। उन का बनाया राज्य तो खत्म हो गया, पर उन का संदेश अभी भी जीवित है । इसलिए मजहब और राज्य नीति में अंतर स्थापित करना चाहिए । कई यूरोपीय देशों में इस्लाम से मुक्त मुस्लिम भी संगठित हो कर अपनी आवाज उठा रहे हैं कि दूसरे धर्मों की तरह मुस्लिमों के बीच भी नास्तिकों या स्वतंत्र विचार वालों को सामान्य अधिकार मिले। अभी तक मुस्लिम समाजों में इस्लाम छोड़ने की बात करना मौत को आमंत्रण देना है, क्योंकि इस्लाम में यही सजा निर्धारित है। इस तरह के सुधारवादी, सेक्यूलर प्रयास अनेकानेक मुस्लिम लेखकों, विचारकों द्वारा भी हो रहे हैं। कई लोग अनाम रहकर यह कार्य कर रहे हैं क्योंकि उन्हें इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा मारे जाने का सीधा खतरा है । इब्न बराक, तसलीमा नसरीन, वफा सुलतान, अय्यान हिरसी अली, जैसे कुछ नाम तो जाने-माने हैं। पर और भी मुस्लिम इस दिशा में काम कर रहे हैं। उन से पता चलता है कि इस्लाम संबंधी आलोचनात्मक विमर्श आगे बढ़ रहा है। यह कहीं न कहीं मुस्लिम मानस में हो रहे मंथन का प्रतिबिंब है । कट्टरपंथियों के हाथों मौत का भय न रहे तो यह विचार-विमर्श स्वयं आशातीत परिणामों तक पहुँच सकता है।
# जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध सैनिक, भौतिक लड़ाई भी आवश्यक है। किंतु इस के लिए वृहत्तर सहयोग अनिवार्य है। अमेरिका ने जैसे 'इच्छकों का सहमेल' (कोएलीशन ऑफ विलिंग) बनाया, उस में खामियाँ थीं। जॉर्ज बुश और टोनी ब्लेयर इसीलिए अपने प्रयासों को विश्वसनीय नहीं बना सके क्योंकि उन्होंने अपने राष्ट्रीय हितों को प्रमुखता दी । भारत जैसे हिन्दू देश के जिहादी आतंकवाद के हाथों उत्पीड़न को कम करके या उपेक्षा के साथ देखा । इसीलिए भारत के साथ सहयोग के बजाए पाकिस्तान के उपयोग की नीति बनाई, ताकि अफगानिस्तान में जमे उन आतंकवादी संगठनों को हराया जा सके जो मुख्यतः अमेरिका को निशाना बनाते हैं। बदले में, पाकिस्तान ने अपने इस्लामी-राष्ट्रीय एजेंडा के लिए लाभ उठाया। राष्ट्रपति मुशर्रफ ने अमेरिका को सीमित सहयोग देते हुए उसी के सहयोग से अपना कश्मीर एजेंडा और भारत-विरोधी जिहाद को बल पहुँचाया । अमेरिकी और यूरोपीय नीति-निर्माता इसे समझ कर भी मौन रहे । इस स्वार्थपूर्ण और संकीर्ण नीति ने अमेरीकियों के आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध को कमजोर बनाया । भारत द्वारा झेले जा रहे आतंकवाद की उपेक्षा की गई ताकि पाकिस्तानी शासक और सेना अमेरिकी चिंताओं के समाधान में मदद करें। किंतु यह जिहादी आतंकवाद नितांत वैश्विक है, भौतिक और रणनीति दोनों रूपों से । जो जिहादी भारत पर नजर गड़ाए हुए हैं, वही सीधे या दूसरे सूत्रों के साथ अमेरिका, यूरोप और इजराइल के विरुद्ध भी लगे हैं। उसी तरह, जो अभी अमेरिका को निशाना बना रहे हैं, वही बाद में भारत पर भी कब्जे का मनसूबा रखते हैं । इस्लामी स्टेट ने अपने भविष्य के नक्शे में भारत को मुगलिस्तान जैसा चिन्हित किया है। अतः जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध वृहत्तर मोर्चा बनाना अनिवार्य है।
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# जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध सैनिक, भौतिक लड़ाई भी आवश्यक है। किंतु इस के लिए वृहत्तर सहयोग अनिवार्य है। अमेरिका ने जैसे 'इच्छकों का सहमेल' (कोएलीशन ऑफ विलिंग) बनाया, उस में खामियाँ थीं। जॉर्ज बुश और टोनी ब्लेयर इसीलिए अपने प्रयासों को विश्वसनीय नहीं बना सके क्योंकि उन्होंने अपने राष्ट्रीय हितों को प्रमुखता दी । भारत जैसे हिन्दू देश के जिहादी आतंकवाद के हाथों उत्पीड़न को कम करके या उपेक्षा के साथ देखा । इसीलिए भारत के साथ सहयोग के बजाए पाकिस्तान के उपयोग की नीति बनाई, ताकि अफगानिस्तान में जमे उन आतंकवादी संगठनों को हराया जा सके जो मुख्यतः अमेरिका को निशाना बनाते हैं। बदले में, पाकिस्तान ने अपने इस्लामी-राष्ट्रीय एजेंडा के लिए लाभ उठाया। राष्ट्रपति मुशर्रफ ने अमेरिका को सीमित सहयोग देते हुए उसी के सहयोग से अपना कश्मीर एजेंडा और भारत-विरोधी जिहाद को बल पहुँचाया । अमेरिकी और यूरोपीय नीति-निर्माता इसे समझ कर भी मौन रहे । इस स्वार्थपूर्ण और संकीर्ण नीति ने अमेरीकियों के आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध को कमजोर बनाया । भारत द्वारा झेले जा रहे आतंकवाद की उपेक्षा की गई ताकि पाकिस्तानी शासक और सेना अमेरिकी चिंताओं के समाधान में सहायता करें। किंतु यह जिहादी आतंकवाद नितांत वैश्विक है, भौतिक और रणनीति दोनों रूपों से । जो जिहादी भारत पर नजर गड़ाए हुए हैं, वही सीधे या दूसरे सूत्रों के साथ अमेरिका, यूरोप और इजराइल के विरुद्ध भी लगे हैं। उसी तरह, जो अभी अमेरिका को निशाना बना रहे हैं, वही बाद में भारत पर भी कब्जे का मनसूबा रखते हैं । इस्लामी स्टेट ने अपने भविष्य के नक्शे में भारत को मुगलिस्तान जैसा चिन्हित किया है। अतः जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध वृहत्तर मोर्चा बनाना अनिवार्य है।
# जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध मोर्चे में मुस्लिम सुधारवादियों को भी जोड़ना आवश्यक है । इस बिन्दु पर भी अमेरिकी, यूरोपीय और धार्मिक नीति-निर्माताओं ने गलती की है। तुर्की जैसे सब से उदार मुस्लिम देश में, जिस ने पिछले आठ दशक से इस्लामी कट्टरपंथ को खारिज कर रखा है, वहाँ भी संकीर्ण स्वार्थ में अमरीकियों ने बढ़ते कट्टरपंथियों के प्रति उदार रवैया अपनाया। वे तुर्की को 'इस्लामी लोकतांत्रिक' बताते हुए दूसरे देशों के मुसलमानों के समक्ष मॉडल के रूप में पेश करने लगे। इस से तुर्की में इस्लामपंथियों को मदद मिली और सच्चे सेक्यूलर लोग दुःखी हए। वे स्वयं को लोकतांत्रिक मानते हैं, उसी तरह जैसे यूरोप लोकतांत्रिक है, कोई 'ईसाई लोकतांत्रिक' नहीं। किंतु अमेरिकी अपनी संकीर्ण बुद्धि में मुसलमानों के बीच सच्चे सुधारवादियों को खुला सहयोग न देकर कट्टरपंथियों के साथ मेल-मिलाप और राजनीति करते रहे हैं । इस से सुधारवादी मुसलमानों की उपेक्षा होती है। यही बात भारत जैसे देशों में भी है। सरकारी गैरसरकारी संस्थानों और मीडिया में प्रभावी लोग सुधारवादी मुस्लिम प्रतिनिधियों के बजाए कट्टरपंथी उलेमा और नेताओं को तरजीह देते हैं । अब्दुल कलाम जैसे अनूठे व्यक्ति को अपने कार्य में अपूर्व लोकप्रियता हासिल रहने के बावजूद उन्हें राष्ट्रपति पद पर दूसरा कार्यकाल न दिया जाना इस का सब से प्रतिनिधि उदाहरण था । तसलीमा नसरीन को धार्मिक नागरिकता न देना, उन्हें यहाँ बौद्धिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक गतिविधियों में निमंत्रित न करना, आदि उसी का अन्य बड़ा उदाहरण है। उन्हें तथा उन के जैसे लोगों को मुस्लिम प्रतिनिधि के रूप में स्थापित करने का कोई यत्न नहीं होता । जब कि तरह-तरह के कट्टरपंथी, उग्रवादी मुस्लिम नेताओं को संतुष्ट करने के प्रयास सभी नेता, मीडिया और बौद्धिक करते रहते हैं ।
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# जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध मोर्चे में मुस्लिम सुधारवादियों को भी जोड़ना आवश्यक है । इस बिन्दु पर भी अमेरिकी, यूरोपीय और धार्मिक नीति-निर्माताओं ने गलती की है। तुर्की जैसे सब से उदार मुस्लिम देश में, जिस ने पिछले आठ दशक से इस्लामी कट्टरपंथ को खारिज कर रखा है, वहाँ भी संकीर्ण स्वार्थ में अमरीकियों ने बढ़ते कट्टरपंथियों के प्रति उदार रवैया अपनाया। वे तुर्की को 'इस्लामी लोकतांत्रिक' बताते हुए दूसरे देशों के मुसलमानों के समक्ष मॉडल के रूप में पेश करने लगे। इस से तुर्की में इस्लामपंथियों को सहायता मिली और सच्चे सेक्यूलर लोग दुःखी हए। वे स्वयं को लोकतांत्रिक मानते हैं, उसी तरह जैसे यूरोप लोकतांत्रिक है, कोई 'ईसाई लोकतांत्रिक' नहीं। किंतु अमेरिकी अपनी संकीर्ण बुद्धि में मुसलमानों के बीच सच्चे सुधारवादियों को खुला सहयोग न देकर कट्टरपंथियों के साथ मेल-मिलाप और राजनीति करते रहे हैं । इस से सुधारवादी मुसलमानों की उपेक्षा होती है। यही बात भारत जैसे देशों में भी है। सरकारी गैरसरकारी संस्थानों और मीडिया में प्रभावी लोग सुधारवादी मुस्लिम प्रतिनिधियों के बजाए कट्टरपंथी उलेमा और नेताओं को तरजीह देते हैं । अब्दुल कलाम जैसे अनूठे व्यक्ति को अपने कार्य में अपूर्व लोकप्रियता हासिल रहने के बावजूद उन्हें राष्ट्रपति पद पर दूसरा कार्यकाल न दिया जाना इस का सब से प्रतिनिधि उदाहरण था । तसलीमा नसरीन को धार्मिक नागरिकता न देना, उन्हें यहाँ बौद्धिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक गतिविधियों में निमंत्रित न करना, आदि उसी का अन्य बड़ा उदाहरण है। उन्हें तथा उन के जैसे लोगों को मुस्लिम प्रतिनिधि के रूप में स्थापित करने का कोई यत्न नहीं होता । जब कि तरह-तरह के कट्टरपंथी, उग्रवादी मुस्लिम नेताओं को संतुष्ट करने के प्रयास सभी नेता, मीडिया और बौद्धिक करते रहते हैं ।
 
# भारत में एक विशेष समस्या राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों की डरू नीति भी है। यह इतने भीरु और अनिश्चय में डूबे लोग हैं कि अपनी पहचान तक से इन्कार करते हैं। इसीलिए उग्रवाद और कट्टरपंथ को पीढ़ियों से झेलते हुए भी मिथ्याचार में जीते हैं । न केवल वे जो दोषपूर्ण शिक्षा के प्रभाव में गंभीर तथ्यों से अनजान रखे गए हैं; बल्कि वे भी जो सब कुछ जानते-समझते हैं, एक आत्महन्ता मिथ्याचार का पोषण करते हैं। इस तरह, मानो एक सचेत नीति के अंतर्गत हमारा राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग उग्रवाद और आतंक की प्रत्येक अभिव्यक्ति के प्रति सहनशील रहा है। यहाँ तक कि वह उस के अस्तित्व से ही इन्कार करता है। इस के अलावा सत्ता के लिए राजनीतिक प्रतिद्वंदिता में वोटों के लालच में कई बार कट्टरपंथियों को बढ़ावा दिया है । यह जानते हुए भी कि इस प्रवृत्ति से एक बार भारत के टुकड़े हो चुके हैं, वे अपनी संकीर्ण लालसा से उबर नहीं पाते और देश को कट्टरपंथियों की दया पर छोड़ रहे हैं । यद्यपि यह केवल हमारा रोग नहीं रह गया है । यूरोप के अनेक देशों में भी यही प्रवृत्ति है। अतः इस्लामी एकांतिकता-उग्रवाद-विस्तारवाद की समस्या अंततः स्वयं मुस्लिम समाज के बीच, उन के अपने आत्म-संघर्ष और प्रयासों से ही सुलझेगी। विशेषकर अरब, ईरान में किसी मूलगामी परिवर्तन से, जैसे कम्युनिज्म के साथ हुआ ।
 
# भारत में एक विशेष समस्या राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों की डरू नीति भी है। यह इतने भीरु और अनिश्चय में डूबे लोग हैं कि अपनी पहचान तक से इन्कार करते हैं। इसीलिए उग्रवाद और कट्टरपंथ को पीढ़ियों से झेलते हुए भी मिथ्याचार में जीते हैं । न केवल वे जो दोषपूर्ण शिक्षा के प्रभाव में गंभीर तथ्यों से अनजान रखे गए हैं; बल्कि वे भी जो सब कुछ जानते-समझते हैं, एक आत्महन्ता मिथ्याचार का पोषण करते हैं। इस तरह, मानो एक सचेत नीति के अंतर्गत हमारा राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग उग्रवाद और आतंक की प्रत्येक अभिव्यक्ति के प्रति सहनशील रहा है। यहाँ तक कि वह उस के अस्तित्व से ही इन्कार करता है। इस के अलावा सत्ता के लिए राजनीतिक प्रतिद्वंदिता में वोटों के लालच में कई बार कट्टरपंथियों को बढ़ावा दिया है । यह जानते हुए भी कि इस प्रवृत्ति से एक बार भारत के टुकड़े हो चुके हैं, वे अपनी संकीर्ण लालसा से उबर नहीं पाते और देश को कट्टरपंथियों की दया पर छोड़ रहे हैं । यद्यपि यह केवल हमारा रोग नहीं रह गया है । यूरोप के अनेक देशों में भी यही प्रवृत्ति है। अतः इस्लामी एकांतिकता-उग्रवाद-विस्तारवाद की समस्या अंततः स्वयं मुस्लिम समाज के बीच, उन के अपने आत्म-संघर्ष और प्रयासों से ही सुलझेगी। विशेषकर अरब, ईरान में किसी मूलगामी परिवर्तन से, जैसे कम्युनिज्म के साथ हुआ ।
 
# इस बीच, शेष विश्व, विशेषकर गैर-मुस्लिम विश्व को अपनी नीति को ठोस सचाइयों और विवेक पर दृढ़ करना होगा। यदि वे जिहादी शक्तियों से बचकर रहना चाहें और उन के साथ सैनिक लड़ाई न भी लड़ना चाहें (जो सदा उन के हाथ में नहीं है), तब भी इतना तो वे कर ही सकते हैं कि विचारों के क्षेत्र में अनम्य रहें। जो बातें नैतिक, दार्शनिक, संवैधानिक या मानवीय कसौटियों पर अनुचित हो - उसे किसी मजहबी ‘भावना' के नाम पर तरह न दें। क्योंकि यह तो हर हाल में केवल इस्लामी कट्टरपंथियों को बल पहुँचाती रही है। साथ ही, मुस्लिम समाज के अंदर सुधारवादी लोगों को असहाय बनाती है।
 
# इस बीच, शेष विश्व, विशेषकर गैर-मुस्लिम विश्व को अपनी नीति को ठोस सचाइयों और विवेक पर दृढ़ करना होगा। यदि वे जिहादी शक्तियों से बचकर रहना चाहें और उन के साथ सैनिक लड़ाई न भी लड़ना चाहें (जो सदा उन के हाथ में नहीं है), तब भी इतना तो वे कर ही सकते हैं कि विचारों के क्षेत्र में अनम्य रहें। जो बातें नैतिक, दार्शनिक, संवैधानिक या मानवीय कसौटियों पर अनुचित हो - उसे किसी मजहबी ‘भावना' के नाम पर तरह न दें। क्योंकि यह तो हर हाल में केवल इस्लामी कट्टरपंथियों को बल पहुँचाती रही है। साथ ही, मुस्लिम समाज के अंदर सुधारवादी लोगों को असहाय बनाती है।

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