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(२) शिक्षा का सम्बन्ध अर्थ से तोड़ने का और एक कारण है। शिक्षा स्वेच्छा और स्वतन्त्रतापूर्वक होती है और जिज्ञासा उसकी मूल प्रेरणा है। देश के छोटी से बड़ी आयु के विद्यार्थियों में जीवन और जगत को जानने की इच्छा जागृत करना मातापिता और शिक्षक का काम है। जिज्ञासा जाग्रत करने के बाद उसका समाधान करने हेत विद्यार्थी को स्वयं प्रयास करना चाहिये । ऐसा प्रयास करने में उसकी सहायता करना, उसे प्रेरित करना शिक्षक का काम है। उसे ही भारत में हम सिखाना कहते हैं। यह एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध आत्मीयता का होता है, पैसे का नहीं । हम तो दोनों को एक ही व्यक्तित्व के दो हिस्से मानते हैं । ज्ञान को शिक्षक से विद्यार्थी तक पहुँचने का रास्ता अन्दर से अर्थात् अन्तःकरण से जाता है, बाहर से नहीं । शिक्षक दो प्रकार के होते हैं । एक होते हैं विषय के और दूसरे विद्यार्थी के । विषय के शिक्षक को प्रथम विद्यार्थी का शिक्षक बनना होता है। शिक्षक जब विद्यार्थी को जानता और समझता है, उसके कल्याण की कामना करता है और उसकी ग्रहण करने की क्षमता के अनुसार प्रयासरत होता है तब वह विद्यार्थी का शिक्षक बनता है। आप शिक्षकों को विद्यार्थियों के शिक्षक बनना सिखायें।
 
(२) शिक्षा का सम्बन्ध अर्थ से तोड़ने का और एक कारण है। शिक्षा स्वेच्छा और स्वतन्त्रतापूर्वक होती है और जिज्ञासा उसकी मूल प्रेरणा है। देश के छोटी से बड़ी आयु के विद्यार्थियों में जीवन और जगत को जानने की इच्छा जागृत करना मातापिता और शिक्षक का काम है। जिज्ञासा जाग्रत करने के बाद उसका समाधान करने हेत विद्यार्थी को स्वयं प्रयास करना चाहिये । ऐसा प्रयास करने में उसकी सहायता करना, उसे प्रेरित करना शिक्षक का काम है। उसे ही भारत में हम सिखाना कहते हैं। यह एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध आत्मीयता का होता है, पैसे का नहीं । हम तो दोनों को एक ही व्यक्तित्व के दो हिस्से मानते हैं । ज्ञान को शिक्षक से विद्यार्थी तक पहुँचने का रास्ता अन्दर से अर्थात् अन्तःकरण से जाता है, बाहर से नहीं । शिक्षक दो प्रकार के होते हैं । एक होते हैं विषय के और दूसरे विद्यार्थी के । विषय के शिक्षक को प्रथम विद्यार्थी का शिक्षक बनना होता है। शिक्षक जब विद्यार्थी को जानता और समझता है, उसके कल्याण की कामना करता है और उसकी ग्रहण करने की क्षमता के अनुसार प्रयासरत होता है तब वह विद्यार्थी का शिक्षक बनता है। आप शिक्षकों को विद्यार्थियों के शिक्षक बनना सिखायें।
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तीसरी बात है साधनसामग्री के आत्यन्तिक उपयोग की। हमारे देश में एक सूत्र बहुत पहले से प्रचलित है। वह है 'शिक्षा साधनों से नहीं अपितु, साधना से होती है।' साधना पैसे के लिये नहीं की जाती, पैसे से अधिक मूल्यवान बातों के लिये की जाती हैं । शिक्षा को हम श्रेष्ठ मानते हैं इसलिये साधना से प्राप्त करना चाहते हैं। अतः बिना साधन सामग्री से पढना सिखाना चाहिये । विद्यार्थी जब अपने हाथ पैर मन, बुद्धि, आदि से सीखता है तब अधिक अच्छी तरह से सीखता है । दूसरे दो लाभ होते हैं । साधन सामग्री का जंजाल कम होता है, उसके पीछे जो समय, शक्ति और पैसे का खर्च होता है वह टल जाता है। साथ ही विद्यार्थी की सक्रियता बनने के कारण कम समय में, कम परिश्रम से, अधिक आनन्द से पढा जाता है। पढने के इस शास्र को जानने का आप प्रयास करें।
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तीसरी बात है साधनसामग्री के आत्यन्तिक उपयोग की। हमारे देश में एक सूत्र बहुत पहले से प्रचलित है। वह है 'शिक्षा साधनों से नहीं अपितु, साधना से होती है।' साधना पैसे के लिये नहीं की जाती, पैसे से अधिक मूल्यवान बातों के लिये की जाती हैं । शिक्षा को हम श्रेष्ठ मानते हैं इसलिये साधना से प्राप्त करना चाहते हैं। अतः बिना साधन सामग्री से पढना सिखाना चाहिये । विद्यार्थी जब अपने हाथ पैर मन, बुद्धि, आदि से सीखता है तब अधिक अच्छी तरह से सीखता है । दूसरे दो लाभ होते हैं । साधन सामग्री का जंजाल कम होता है, उसके पीछे जो समय, शक्ति और पैसे का खर्च होता है वह टल जाता है। साथ ही विद्यार्थी की सक्रियता बनने के कारण कम समय में, कम परिश्रम से, अधिक आनन्द से पढा जाता है। पढने के इस शास्त्र को जानने का आप प्रयास करें।
    
आपकी इवेल्युएशन - मूल्यांकन की, अंक देने की, प्रमाणपत्र देने की पद्धति, आप की समयसारिणी और पाठ्यक्रम बनाने की पद्धति, यान्त्रिकता का बहुत बड़ा नमूना है। ऐसा लगता है कि आप यन्त्र को और मानव को एकसमान मानते हैं, लकडी की टेबल और पढे जाने वाले विषय को एक समान मानते हैं. विषय के अध्ययन की और वस्र बनाने की प्रक्रिया को एक समान मानते हैं । यह बहुत बडा अनर्थ है। प्रेम करनेवाले मनुष्य ने बनाई हुई और दुकान में बेचने के लिये रखी, पैसे से खरीदी जाने वाली रोटी में हम बडा अन्तर देखते हैं । प्रेम करने वाले व्यक्ति ने बनाई हुई और खिलाई हुई रोटी से मन को जो सुख मिलता है उससे जगत के अपराध कम होते हैं। उसी प्रकार से विद्यार्थी का भला चाहनेवाले शिक्षक द्वारा दी गई शिक्षा की गुणवत्ता कुछ अलग ही होती है। आप समझ सकते हैं कि जगत में होने वाले अपराधों में से अधिकतम भावनाओं की गडबडी के कारण से ही होते हैं । अतः शिक्षा की पद्धति उसकी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को समझकर ही तय होनी चाहिये । संक्षेप में कह सकते हैं कि अध्ययन अध्यापन की प्रक्रिया को अधिक जीवमान बनाने की आवश्यकता है।  
 
आपकी इवेल्युएशन - मूल्यांकन की, अंक देने की, प्रमाणपत्र देने की पद्धति, आप की समयसारिणी और पाठ्यक्रम बनाने की पद्धति, यान्त्रिकता का बहुत बड़ा नमूना है। ऐसा लगता है कि आप यन्त्र को और मानव को एकसमान मानते हैं, लकडी की टेबल और पढे जाने वाले विषय को एक समान मानते हैं. विषय के अध्ययन की और वस्र बनाने की प्रक्रिया को एक समान मानते हैं । यह बहुत बडा अनर्थ है। प्रेम करनेवाले मनुष्य ने बनाई हुई और दुकान में बेचने के लिये रखी, पैसे से खरीदी जाने वाली रोटी में हम बडा अन्तर देखते हैं । प्रेम करने वाले व्यक्ति ने बनाई हुई और खिलाई हुई रोटी से मन को जो सुख मिलता है उससे जगत के अपराध कम होते हैं। उसी प्रकार से विद्यार्थी का भला चाहनेवाले शिक्षक द्वारा दी गई शिक्षा की गुणवत्ता कुछ अलग ही होती है। आप समझ सकते हैं कि जगत में होने वाले अपराधों में से अधिकतम भावनाओं की गडबडी के कारण से ही होते हैं । अतः शिक्षा की पद्धति उसकी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को समझकर ही तय होनी चाहिये । संक्षेप में कह सकते हैं कि अध्ययन अध्यापन की प्रक्रिया को अधिक जीवमान बनाने की आवश्यकता है।  

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