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अतः इस दुनिया में और मरने के बाद अतुलनीय महत्वाकांक्षा एवं ईनाम वाले ईश्वरीय दावों के साथ, ऐसी घातक और आत्मघातक कटिबद्धता वाली जिहादी विचारधारा के गुटों, समूहों का प्रतिकार करना आसान नहीं है। इस संदर्भ में कुछ बिन्दुओं पर विशेषकर विचार करना चाहिए -
 
अतः इस दुनिया में और मरने के बाद अतुलनीय महत्वाकांक्षा एवं ईनाम वाले ईश्वरीय दावों के साथ, ऐसी घातक और आत्मघातक कटिबद्धता वाली जिहादी विचारधारा के गुटों, समूहों का प्रतिकार करना आसान नहीं है। इस संदर्भ में कुछ बिन्दुओं पर विशेषकर विचार करना चाहिए -
 
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# जिहादी आतंकवाद ने केवल भारत, अमेरिका या यूरोप को ही निशाने पर नहीं रखा हुआ है। पिछले दो-तीन दशक से उस ने स्वयं मुस्लिम देशों, पश्चिम एशिया की लगभग हर राज्यसत्ता को भी चुनौती दी है। अभीअभी ईरान की संसद पर हमला करने वालों ने गर्व से दुहराया है, कि यही काम वे सउदी अरब और अन्य मुस्लिम देशों में भी करेंगे । वह राज्यसत्ताएं मुस्लिम हाथों में ही हैं । किंतु उन मुस्लिमों के जिन्होंने समय के साथ अनेक मूल इस्लामी मान्यताओं, निर्देशों से दूरी बना ली है अथवा जो सामाजिक-राजनीतिक जीवन के कई मामलों में सभी इस्लामी आदेशों को लागू करने में रुचि नहीं रखते । ऐसे शासकों से कट्टर इस्लामी और जिहादी संगठन नाराज रहे हैं। इसीलिए ऐसे इस्लामपंथियों ने पहले उन्हीं को निशाने पर रखा था। जब वे उस में विफल हुए, तब उन का कोप पश्चिमी देशों की ओर बढ़ा।
(१) जिहादी आतंकवाद ने केवल भारत, अमेरिका या यूरोप को ही निशाने पर नहीं रखा हुआ है। पिछले दो-तीन दशक से उस ने स्वयं मुस्लिम देशों, पश्चिम एशिया की लगभग हर राज्यसत्ता को भी चुनौती दी है। अभीअभी ईरान की संसद पर हमला करने वालों ने गर्व से दुहराया है, कि यही काम वे सउदी अरब और अन्य मुस्लिम देशों में भी करेंगे । वह राज्यसत्ताएं मुस्लिम हाथों में ही हैं । किंतु उन मुस्लिमों के जिन्होंने समय के साथ अनेक मूल इस्लामी मान्यताओं, निर्देशों से दूरी बना ली है अथवा जो सामाजिक-राजनीतिक जीवन के कई मामलों में सभी इस्लामी आदेशों को लागू करने में रुचि नहीं रखते । ऐसे शासकों से कट्टर इस्लामी और जिहादी संगठन नाराज रहे हैं। इसीलिए ऐसे इस्लामपंथियों ने पहले उन्हीं को निशाने पर रखा था। जब वे उस में विफल हुए, तब उन का कोप पश्चिमी देशों की ओर बढ़ा।
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# जिहादी आतंकवाद को खत्म करने में आधुनिकतम हथियारों से सुसज्जित सेनाएं असमर्थ रही हैं । अफगानिस्तान और पाकिस्तान का पिछले पंद्रह वर्षों से यही परिदृश्य है । अमेरिका द्वारा चलाया गया ‘आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध' (वार ऑन टेरर) जीता नहीं जा सका । तालिबानों को मिटा देने की प्रतिज्ञा के साथ ब्रिटेन को अपना सैनिक अभियान अफगानिस्तान से चुपचाप, निष्फल खत्म करना पड़ा। यह पिछले सौ साल में ब्रिटेन का सब से विशाल, मँहगा सैनिक अभियान था । अमेरिकी प्रशासन ने भी बराक ओबामा के दूसरे कार्यकाल में उन्हीं तालिबानों के साथ किसी प्रकार का समझौता या बात-चीत का प्रयास किया, जिसे मिटाने के लिए अमेरिका वहाँ पंद्रह साल से जमा हुआ है। यह सब प्रमाण है कि जिहादी आतंकवाद के बारे में समझ और नीति दोनों ही अनुपयुक्त रही है । इस आतंकवाद के प्राण इस की विचारधारा में बसते हैं - उन आतंकवादी सरदारों और संगठनों में नहीं जिन पर प्रहार कर आतंकवाद को हराने की कोशिशें हो रही हैं।
 
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# अमेरीकियों ने अल कायदा, तालिबान, बिन लादेन, मुल्ला उमर, आदि को केवल लड़ाकों के रूप में देखा जिसे अधिक शक्ति का प्रयोग करके वे हरा देना चाहते थे। उन्होंने जिहादी विचार को कम करके आँका । केवल हथियार, सेना और धन से उन का मूल्यांकन करके उन्हें बहुत छोटा समझा । यह भूल थी। वे ध्यान देने में चूक गए कि दुनिया भर के उग्रवादी, जिहादी और कट्टरपंथी संगठन किन भावनाओं - किस दर्शन - से संचालित हो रहे हैं। यदि जिहादियों को मौत का भय नहीं, यदि उन्हें अपने हारने का कोई कारण ही नहीं दिखता, यदि उन्हें पश्चिमी देशों के जीवन और कार्य के नीच होने के प्रति कोई संदेह ही नहीं है, तो क्यों, किस आधार पर है? इसे निर्धारित किए बिना केवल सैनिकी रणनीति बनाना निश्चय ही भूल है । जिहादियों का दार्शनिक विश्वास गंभीरता पूर्वक ध्यान दिए जाने की माँग करता है, जबकि उस की सरसरी उपेक्षा की गई । बल्कि उसके अस्तित्व से ही इन्कार किया गया । वह स्थिति आज भी बहुत नहीं बदली है।
(२). जिहादी आतंकवाद को खत्म करने में आधुनिकतम हथियारों से सुसज्जित सेनाएं असमर्थ रही हैं । अफगानिस्तान और पाकिस्तान का पिछले पंद्रह वर्षों से यही परिदृश्य है । अमेरिका द्वारा चलाया गया ‘आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध' (वार ऑन टेरर) जीता नहीं जा सका । तालिबानों को मिटा देने की प्रतिज्ञा के साथ ब्रिटेन को अपना सैनिक अभियान अफगानिस्तान से चुपचाप, निष्फल खत्म करना पड़ा। यह पिछले सौ साल में ब्रिटेन का सब से विशाल, मँहगा सैनिक अभियान था । अमेरिकी प्रशासन ने भी बराक ओबामा के दूसरे कार्यकाल में उन्हीं तालिबानों के साथ किसी प्रकार का समझौता या बात-चीत का प्रयास किया, जिसे मिटाने के लिए अमेरिका वहाँ पंद्रह साल से जमा हुआ है। यह सब प्रमाण है कि जिहादी आतंकवाद के बारे में समझ और नीति दोनों ही अनुपयुक्त रही है । इस आतंकवाद के प्राण इस की विचारधारा में बसते हैं - उन आतंकवादी सरदारों और संगठनों में नहीं जिन पर प्रहार कर आतंकवाद को हराने की कोशिशें हो रही हैं।
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# अतः जिहादी आतंकवाद की विचारधारा की शक्ति, स्त्रोत और भूमिका तीनों पर विचार करना चाहिए । अन्यथा पूरे मामले को समझना असंभव होगा। विभिन्न देशों में इस्लामी कट्टरपंथ, उग्रवाद अथवा जिहादी आतंकवाद के उदय और विकास की कुछ स्थानीय विशेषताएं भी हैं। किंतु उन में जो सामान्य तत्व हैं, समस्या का मूल उन्हीं में है।
 
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# उदारवादी मुस्लिम अपने समाज के कट्टरपंथी तत्वों के समक्ष सदैव असहाय हो जाते हैं इस का कारण खोजने और समझने की जरूरत है । यह हिंसा के भय से अधिक वैचारिक निहत्थेपन के कारण है। क्योंकि संपूर्ण मुस्लिम विमर्श, चाहे उदारवादी हो या कट्टरपंथी, इस्लाम को ही मानक संदर्भ मानकर चलता है। लेकिन इस्लामी दर्शन में कभी भी मानवता, लोकतंत्र, न्याय, शांति, भाईचारा की सार्वभौमिक मान्यताओं को महत्व नहीं दिया जाता । यह सब धारणाएं मुस्लिम आलिम, उलेमा के लिए इस्लाम की कसौटी पर तुच्छ हैं। उन के लिए न्याय का मतलब 'इस्लामी न्याय' है । लोकतंत्र का अर्थ 'इस्लामी लोकतंत्र' और कानून केवल इस्लामी कानून' है। इसी तरह नैतिकता, शिक्षा, विवेक, भाईचारा सब कुछ इस्लाम के अधीन है । गैर-इस्लामी जन-समुदाय के प्रति रुख भी इस्लाम की मान्यताओं के आधार पर तय होता है। यहाँ तक कि आतंकवादी कार्रवाइयों की भर्त्सना भी इस्लाम का हवाला देकर ही की जाती रही है। तब इस्लामी जिहादियों, आतंकवादियों के ही विचारों, कार्यों को इस्लाम से अलग करके कैसे देखा जा सकता है जो सारी दुनिया में केवल इस्लामी साम्राज्य लाने के लक्ष्य से ही प्रेरित हैं? उन का कोई अन्य लक्ष्य है ही नहीं, यह वे डंके की चोट पर हजारों बार कह चुके हैं। तब उन की गतिविधियों को उन आदेशों से अलग कैसे किया जा सकता है जो इस्लामी ग्रंथों में बार-बार काफिरों के लिए दुहराए गए हैं? उदारवादी मुसलमानों के लिए असल समस्या यहीं खड़ी होती है, जब वे आतंकवादियों को इस्लाम से अलग करने का प्रयास करते हैं ।
(३) अमेरीकियों ने अल कायदा, तालिबान, बिन लादेन, मुल्ला उमर, आदि को केवल लड़ाकों के रूप में देखा जिसे अधिक शक्ति का प्रयोग करके वे हरा देना चाहते थे। उन्होंने जिहादी विचार को कम करके आँका । केवल हथियार, सेना और धन से उन का मूल्यांकन करके उन्हें बहुत छोटा समझा । यह भूल थी। वे ध्यान देने में चूक गए कि दुनिया भर के उग्रवादी, जिहादी और कट्टरपंथी संगठन किन भावनाओं - किस दर्शन - से संचालित हो रहे हैं। यदि जिहादियों को मौत का भय नहीं, यदि उन्हें अपने हारने का कोई कारण ही नहीं दिखता, यदि उन्हें पश्चिमी देशों के जीवन और कार्य के नीच होने के प्रति कोई संदेह ही नहीं है, तो क्यों, किस आधार पर है? इसे निर्धारित किए बिना केवल सैनिकी रणनीति बनाना निश्चय ही भूल है । जिहादियों का दार्शनिक विश्वास गंभीरता पूर्वक ध्यान दिए जाने की माँग करता है, जबकि उस की सरसरी उपेक्षा की गई । बल्कि उसके अस्तित्व से ही इन्कार किया गया । वह स्थिति आज भी बहुत नहीं बदली है।
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# यदि जिहादी आतंकवादी इस्लाम से पृथक हैं, तो किसी भी आतंकवादी के विरुद्ध आज तक किसी इस्लामी संस्थान ने फतवा क्यों नहीं दिया, भारत में भी सिमी, लश्करे-तोयबा, इंडियन मुजाहिदीन, आदि के विरुद्ध? उलटे हर प्रकार के जिहादी के पकड़े जाने या मारे जाने पर उस के प्रति सहानुभूति, उसे निर्दोष बताने या उसे खुलेआम हीरो मानने - जैसा भारतीय संसद पर आतंकरी हमले के दोषी मुहम्मद अफजल के मामले में यहाँ देखा गया - का चलन दुनिया भर के आम मुस्लिम नेताओं के बीच देखा गया है। अतः कथित उदारवादी इस्लाम और उग्रवादी इस्लाम के बीच वास्तव में कोई सैद्धांतिक या सांस्कृतिक विभाजन नहीं किया जा सकता। इस्लामी किताबों या निर्देशों में कहीं ऐसा विभेद नहीं है। यही कारण है कि जो मुसलमान सच्चे उदारवादी हैं, वे भी इस्लामी उग्रवाद की अभिव्यक्तियों पर कुछ नहीं कहते । कह नहीं पाते । वे जानते हैं कि वह हृदय से जो कहना चाहेंगे उस के लिए इस्लामी सिद्धांत, व्यवहार और इतिहास में कोई ठोस, सर्वस्वीकृत समर्थन नहीं है।
 
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# दरअसल, जिहादी आतंकवादियों द्वारा बम और छुरे से हमला करना, आत्मघाती हमले या सामूहिक हत्याएं करना मूल समस्या नहीं है । वह तो समस्या का एक लक्षण भर है। आतंकवाद एक कार्यनीति है, मूल समस्या नहीं। यह एक साधन मात्र है। जैसे दो देशों के बीच युद्ध में मिसाइलें, बमवर्षक जहाज या पनडुब्बी किसी पक्ष के साधन होते हैं। उसी तरह इस्लामवाद नामक समस्या या पक्ष की ओर से आंतकवाद एक साधन मात्र है। यह गैर-मुस्लिम विश्व और मुस्लिमों में भी उदारवादियों को अपनी इच्छा के प्रति झुकाने का एक हथियार है । उस के दूसरे हथियार भी हैं जो इसी उद्देश्य से प्रयोग किए जा रहे हैं। अतः जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष को शेष मामलों - जैसे रोजमर्रे के चित्र-विचित्र फतवे, खुमैनी, तसलीमा, मदरसों की दुनिया, यहूदी विरोध, 'शार्ली अब्दो' पत्रकारों की हत्या, कार्टून विवाद, जनसांख्यिकी दबाव, आप्रवासन नीति, इस्लामी बैंकिंग, कश्मीरी अलगाववाद, तीन तलाक, आदि - से अलग-थलग करके सफल बनाया नहीं जा सकता। इस्लामी एकाधिकार या विशेषाधिकार का अंधविश्वास, जिद या चाह मूल समस्या है । यह किसी एक देश या क्षेत्र की नहीं, वरन पूरी दुनिया की समस्या है।
(४) अतः जिहादी आतंकवाद की विचारधारा की शक्ति, स्त्रोत और भूमिका तीनों पर विचार करना चाहिए । अन्यथा पूरे मामले को समझना असंभव होगा। विभिन्न देशों में इस्लामी कट्टरपंथ, उग्रवाद अथवा जिहादी आतंकवाद के उदय और विकास की कुछ स्थानीय विशेषताएं भी हैं। किंतु उन में जो सामान्य तत्व हैं, समस्या का मूल उन्हीं में है।
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# इस अर्थ में भी आज इस्लामवादी विचारधारा की स्थिति १९७० के दशक वाली कम्युनिस्ट विचारधारा के समान है। तब सारी दुनिया के कम्युनिस्ट मार्क्सवाद को स्वयंसिद्ध विज्ञान मानते थे । तदनुरूप अमेरिका, यूरोप के पूँजीवाद के नष्ट होने तथा कम्युनिस्ट विश्व-विजय का अंधविश्वास पालते थे। किंतु दिनो-दिन वास्तविकता उन्हें मुश्किल में डाल रही थी, क्योंकि मार्क्सवाद-लेनिनवाद का प्रत्येक मूलभूत सूत्र निरर्थक होता दिख रहा था । छल-बल और सेंसरशिप से ही कम्युनिस्ट प्रगति के झूठे विवरण दुनिया भर में फैलाए जाते थे। उसी प्रकार, आज इस्लामवाद भी अपने अंधविश्वासों का बचाव करने में दिनों-दिन निर्बल दिख रहा है। सदैव हिंसा की भाषा इसी का प्रमाण है। तर्क और विवेक से सिनेमा, फोटोग्राफी, हजामत या कार्टून बनाने का विरोध और तीन तलाक या हलाल जैसी गंदी प्रथा का समर्थन कैसे किया जा सकता है? जैसे-तैसे कुछ कहा भी जाए तो उसे कौन मानेगा? निश्चय ही कोई मुसलमान भी स्वयं ऐसे तर्क नहीं देगा। इसीलिए एक ओर आज अनेक इस्लामी निर्देशों, आदेशों को दरकिनार कर लाखों मुस्लिम न केवल सिनेमा देखते हैं, संगीत सुनते हैं, चित्र बनाते हैं, दर्शन और साहित्य पढ़ते हैं, क्लीन शेव करते और पश्चिमी पोशाकें पहनते हैं, लोकतांत्रिक कानून मानते हैं और इस प्रकार व्यवहार में शरीयत की उपेक्षा करते हैं। तो दूसरी ओर, इस्लामी कट्टरपंथी अपने मध्ययुगीन ‘एक मात्र सत्य' को पूरी दुनिया पर बलपूर्वक लागू करने के लिए जिहादी दस्ते बनाते हैं । दोनों ही प्रक्रियाएं चल रही हैं, बल्कि अपने-अपने तरीके से तीव्र हो रही हैं। इन का समाधान इस्लामी विश्व में (१९८० के दशक वाले सोवियत रूस जैसे) किसी ग्लासनोस्त और पेरेखोइका का इंतजार कर रहा है। स्वयं अरब देशों में इस्लामी कट्टरता के कम आंदोलन इसी का संकेत है।
 
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# मोरक्को, सऊदी अरब, मलेशिया जैसे कुछ मुस्लिम देशों में और दुनिया भर के मुस्लिम लेखकों, पत्रकारों में इस पर विचार और संघर्ष हो रहा है कि इस्लामी किताबों के हिंसा के आवाहन वाले और अशोभनीय अंशों को किसी न किसी रूप में त्याग दिया जाए। एक महत्वपूर्ण इस्लामी देश मोरक्को के युवा शासक किंग मुहम्मद छठवें ने भी इस्लामी विधानों में स्पष्ट सुधार का प्रयत्न आरंभ किया है। उन्होंने २००४ में अपने देश में परिवार संबंधी 'मुदवाना' नामक एक नई कानून संहिता लागू की । इस में स्त्रियों को अधिक अधिकार दिए गए हैं । इस के अनुसार बहु-पत्नी प्रथा पर व्यवहार में कड़े प्रतिबंध लगा दिए गए हैं। यह सब स्पष्टतः पारंपरिक इस्लामी शरीयत नियमों से भिन्न हैं। उन्होंने राज्यनीति में लोकतंत्र को भी बढ़ावा देने का कार्य आरंभ किया है। कट्टरपंथियों ने इन प्रयासों का विरोध भी किया है। इसी तरह सऊदी अरब के एक सुधारवादी मौलाना मंसूर अल-नोगीदान ने आवाहन किया है कि इस्लामी मूल विश्वासों में सुधार अपेक्षित है। उन के अपने शब्दों में, 'इस्लाम में सुधार की जरूरत है । इस के लिए ऐसे व्यक्ति की जरूरत है जिस में मार्टिन लूथर जैसा साहस हो । ... यह इस्लाम के भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है।' उन के विचार में कुरान की पुनर्व्याख्या करके यह घोषित करना जरूरी है कि अल्लाह सभी धर्मों के श्रद्धालुओं को प्यार करता है, केवल इस्लाम को मानने वालों को ही नहीं । मंसूर इस विचार का विरोध करने वाले प्रभावी उलेमा को चुनौती देना भी आवश्यक समझते हैं। सीरिया के विद्वान मुहम्मद शाहरूर ने भी इस्लाम में सुधार के प्रश्न को मजबूती से उठाया है। इस्लाम के संस्थापक और इतिहास के अध्ययन से उन का मानना है कि प्रोफेट मुहम्मद ने जो राज्य स्थापित करने की कोशिश की, वह विफल रही थी। उन का बनाया राज्य तो खत्म हो गया, पर उन का संदेश अभी भी जीवित है । इसलिए मजहब और राज्य नीति में अंतर स्थापित करना चाहिए । कई यूरोपीय देशों में इस्लाम से मुक्त मुस्लिम भी संगठित हो कर अपनी आवाज उठा रहे हैं कि दूसरे धर्मों की तरह मुस्लिमों के बीच भी नास्तिकों या स्वतंत्र विचार वालों को सामान्य अधिकार मिले। अभी तक मुस्लिम समाजों में इस्लाम छोड़ने की बात करना मौत को आमंत्रण देना है, क्योंकि इस्लाम में यही सजा निर्धारित है। इस तरह के सुधारवादी, सेक्यूलर प्रयास अनेकानेक मुस्लिम लेखकों, विचारकों द्वारा भी हो रहे हैं। कई लोग अनाम रहकर यह कार्य कर रहे हैं क्योंकि उन्हें इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा मारे जाने का सीधा खतरा है । इब्न बराक, तसलीमा नसरीन, वफा सुलतान, अय्यान हिरसी अली, जैसे कुछ नाम तो जाने-माने हैं। पर और भी मुस्लिम इस दिशा में काम कर रहे हैं। उन से पता चलता है कि इस्लाम संबंधी आलोचनात्मक विमर्श आगे बढ़ रहा है। यह कहीं न कहीं मुस्लिम मानस में हो रहे मंथन का प्रतिबिंब है । कट्टरपंथियों के हाथों मौत का भय न रहे तो यह विचार-विमर्श स्वयं आशातीत परिणामों तक पहुँच सकता है।
(५) उदारवादी मुस्लिम अपने समाज के कट्टरपंथी तत्वों के समक्ष सदैव असहाय हो जाते हैं इस का कारण खोजने और समझने की जरूरत है । यह हिंसा के भय से अधिक वैचारिक निहत्थेपन के कारण है। क्योंकि संपूर्ण मुस्लिम विमर्श, चाहे उदारवादी हो या कट्टरपंथी, इस्लाम को ही मानक संदर्भ मानकर चलता है। लेकिन इस्लामी दर्शन में कभी भी मानवता, लोकतंत्र, न्याय, शांति, भाईचारा की सार्वभौमिक मान्यताओं को महत्व नहीं दिया जाता । यह सब धारणाएं मुस्लिम आलिम, उलेमा के लिए इस्लाम की कसौटी पर तुच्छ हैं। उन के लिए न्याय का मतलब 'इस्लामी न्याय' है । लोकतंत्र का अर्थ 'इस्लामी लोकतंत्र' और कानून केवल इस्लामी कानून' है। इसी तरह नैतिकता, शिक्षा, विवेक, भाईचारा सब कुछ इस्लाम के अधीन है । गैर-इस्लामी जन-समुदाय के प्रति रुख भी इस्लाम की मान्यताओं के आधार पर तय होता है। यहाँ तक कि आतंकवादी कार्रवाइयों की भर्त्सना भी इस्लाम का हवाला देकर ही की जाती रही है। तब इस्लामी जिहादियों, आतंकवादियों के ही विचारों, कार्यों को इस्लाम से अलग करके कैसे देखा जा सकता है जो सारी दुनिया में केवल इस्लामी साम्राज्य लाने के लक्ष्य से ही प्रेरित हैं? उन का कोई अन्य लक्ष्य है ही नहीं, यह वे डंके की चोट पर हजारों बार कह चुके हैं। तब उन की गतिविधियों को उन आदेशों से अलग कैसे किया जा सकता है जो इस्लामी ग्रंथों में बार-बार काफिरों के लिए दुहराए गए हैं? उदारवादी मुसलमानों के लिए असल समस्या यहीं खड़ी होती है, जब वे आतंकवादियों को इस्लाम से अलग करने का प्रयास करते हैं ।
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# जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध सैनिक, भौतिक लड़ाई भी आवश्यक है। किंतु इस के लिए वृहत्तर सहयोग अनिवार्य है। अमेरिका ने जैसे 'इच्छकों का सहमेल' (कोएलीशन ऑफ विलिंग) बनाया, उस में खामियाँ थीं। जॉर्ज बुश और टोनी ब्लेयर इसीलिए अपने प्रयासों को विश्वसनीय नहीं बना सके क्योंकि उन्होंने अपने राष्ट्रीय हितों को प्रमुखता दी । भारत जैसे हिन्दू देश के जिहादी आतंकवाद के हाथों उत्पीड़न को कम करके या उपेक्षा के साथ देखा । इसीलिए भारत के साथ सहयोग के बजाए पाकिस्तान के उपयोग की नीति बनाई, ताकि अफगानिस्तान में जमे उन आतंकवादी संगठनों को हराया जा सके जो मुख्यतः अमेरिका को निशाना बनाते हैं। बदले में, पाकिस्तान ने अपने इस्लामी-राष्ट्रीय एजेंडा के लिए लाभ उठाया। राष्ट्रपति मुशर्रफ ने अमेरिका को सीमित सहयोग देते हुए उसी के सहयोग से अपना कश्मीर एजेंडा और भारत-विरोधी जिहाद को बल पहुँचाया । अमेरिकी और यूरोपीय नीति-निर्माता इसे समझ कर भी मौन रहे । इस स्वार्थपूर्ण और संकीर्ण नीति ने अमेरीकियों के आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध को कमजोर बनाया । भारत द्वारा झेले जा रहे आतंकवाद की उपेक्षा की गई ताकि पाकिस्तानी शासक और सेना अमेरिकी चिंताओं के समाधान में मदद करें। किंतु यह जिहादी आतंकवाद नितांत वैश्विक है, भौतिक और रणनीति दोनों रूपों से । जो जिहादी भारत पर नजर गड़ाए हुए हैं, वही सीधे या दूसरे सूत्रों के साथ अमेरिका, यूरोप और इजराइल के विरुद्ध भी लगे हैं। उसी तरह, जो अभी अमेरिका को निशाना बना रहे हैं, वही बाद में भारत पर भी कब्जे का मनसूबा रखते हैं । इस्लामी स्टेट ने अपने भविष्य के नक्शे में भारत को मुगलिस्तान जैसा चिन्हित किया है। अतः जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध वृहत्तर मोर्चा बनाना अनिवार्य है।
 
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# जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध मोर्चे में मुस्लिम सुधारवादियों को भी जोड़ना आवश्यक है । इस बिन्दु पर भी अमेरिकी, यूरोपीय और भारतीय नीति-निर्माताओं ने गलती की है। तुर्की जैसे सब से उदार मुस्लिम देश में, जिस ने पिछले आठ दशक से इस्लामी कट्टरपंथ को खारिज कर रखा है, वहाँ भी संकीर्ण स्वार्थ में अमरीकियों ने बढ़ते कट्टरपंथियों के प्रति उदार रवैया अपनाया। वे तुर्की को इस्लामी लोकतांत्रिक' बताते हुए दूसरे देशों के मुसलमानों के समक्ष मॉडल के रूप में पेश करने लगे। इस से तुर्की में इस्लामपंथियों को मदद मिली और सच्चे सेक्यूलर लोग दुःखी हए। वे स्वयं को लोकतांत्रिक मानते हैं, उसी तरह जैसे यूरोप लोकतांत्रिक है, कोई ईसाई लोकतांत्रिक' नहीं। किंतु अमेरिकी अपनी संकीर्ण बुद्धि में मुसलमानों के बीच सच्चे सुधारवादियों को खुला सहयोग न देकर कट्टरपंथियों के साथ मेल-मिलाप और राजनीति करते रहे हैं । इस से सुधारवादी मुसलमानों की उपेक्षा होती है। यही बात भारत जैसे देशों में भी है। सरकारी गैरसरकारी संस्थानों और मीडिया में प्रभावी लोग सुधारवादी मुस्लिम प्रतिनिधियों के बजाए कट्टरपंथी उलेमा और नेताओं को तरजीह देते हैं । अब्दुल कलाम जैसे अनूठे व्यक्ति को अपने कार्य में अपूर्व लोकप्रियता हासिल रहने के बावजूद उन्हें राष्ट्रपति पद पर दूसरा कार्यकाल न दिया जाना इस का सब से प्रतिनिधि उदाहरण था । तसलीमा नसरीन को भारतीय नागरिकता न देना, उन्हें यहाँ बौद्धिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक गतिविधियों में निमंत्रित न करना, आदि उसी का अन्य बड़ा उदाहरण है। उन्हें तथा उन के जैसे लोगों को मुस्लिम प्रतिनिधि के रूप में स्थापित करने का कोई यत्न नहीं होता । जब कि तरह-तरह के कट्टरपंथी, उग्रवादी मुस्लिम नेताओं को संतुष्ट करने के प्रयास सभी नेता, मीडिया और बौद्धिक करते रहते हैं ।
(६) यदि जिहादी आतंकवादी इस्लाम से पृथक हैं, तो किसी भी आतंकवादी के विरुद्ध आज तक किसी इस्लामी संस्थान ने फतवा क्यों नहीं दिया, भारत में भी सिमी, लश्करे-तोयबा, इंडियन मुजाहिदीन, आदि के विरुद्ध? उलटे हर प्रकार के जिहादी के पकड़े जाने या मारे जाने पर उस के प्रति सहानुभूति, उसे निर्दोष बताने या उसे खुलेआम हीरो मानने - जैसा भारतीय संसद पर आतंकरी हमले के दोषी मुहम्मद अफजल के मामले में यहाँ देखा गया - का चलन दुनिया भर के आम मुस्लिम नेताओं के बीच देखा गया है। अतः कथित उदारवादी इस्लाम और उग्रवादी इस्लाम के बीच वास्तव में कोई सैद्धांतिक या सांस्कृतिक विभाजन नहीं किया जा सकता। इस्लामी किताबों या निर्देशों में कहीं ऐसा विभेद नहीं है। यही कारण है कि जो मुसलमान सच्चे उदारवादी हैं, वे भी इस्लामी उग्रवाद की अभिव्यक्तियों पर कुछ नहीं कहते । कह नहीं पाते । वे जानते हैं कि वह हृदय से जो कहना चाहेंगे उस के लिए इस्लामी सिद्धांत, व्यवहार और इतिहास में कोई ठोस, सर्वस्वीकृत समर्थन नहीं है।
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# भारत में एक विशेष समस्या राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों की डरू नीति भी है। यह इतने भीरु और अनिश्चय में डूबे लोग हैं कि अपनी पहचान तक से इन्कार करते हैं। इसीलिए उग्रवाद और कट्टरपंथ को पीढ़ियों से झेलते हुए भी मिथ्याचार में जीते हैं । न केवल वे जो दोषपूर्ण शिक्षा के प्रभाव में गंभीर तथ्यों से अनजान रखे गए हैं; बल्कि वे भी जो सब कुछ जानते-समझते हैं, एक आत्महन्ता मिथ्याचार का पोषण करते हैं। इस तरह, मानो एक सचेत नीति के अंतर्गत हमारा राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग उग्रवाद और आतंक की प्रत्येक अभिव्यक्ति के प्रति सहनशील रहा है। यहाँ तक कि वह उस के अस्तित्व से ही इन्कार करता है। इस के अलावा सत्ता के लिए राजनीतिक प्रतिद्वंदिता में वोटों के लालच में कई बार कट्टरपंथियों को बढ़ावा दिया है । यह जानते हुए भी कि इस प्रवृत्ति से एक बार भारत के टुकड़े हो चुके हैं, वे अपनी संकीर्ण लालसा से उबर नहीं पाते और देश को कट्टरपंथियों की दया पर छोड़ रहे हैं । यद्यपि यह केवल हमारा रोग नहीं रह गया है । यूरोप के अनेक देशों में भी यही प्रवृत्ति है। अतः इस्लामी एकांतिकता-उग्रवाद-विस्तारवाद की समस्या अंततः स्वयं मुस्लिम समाज के बीच, उन के अपने आत्म-संघर्ष और प्रयासों से ही सुलझेगी। विशेषकर अरब, ईरान में किसी मूलगामी परिवर्तन से, जैसे कम्युनिज्म के साथ हुआ ।
 
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# इस बीच, शेष विश्व, विशेषकर गैर-मुस्लिम विश्व को अपनी नीति को ठोस सचाइयों और विवेक पर दृढ़ करना होगा। यदि वे जिहादी शक्तियों से बचकर रहना चाहें और उन के साथ सैनिक लड़ाई न भी लड़ना चाहें (जो सदा उन के हाथ में नहीं है), तब भी इतना तो वे कर ही सकते हैं कि विचारों के क्षेत्र में अनम्य रहें। जो बातें नैतिक, दार्शनिक, संवैधानिक या मानवीय कसौटियों पर अनुचित हो - उसे किसी मजहबी ‘भावना' के नाम पर तरह न दें। क्योंकि यह तो हर हाल में केवल इस्लामी कट्टरपंथियों को बल पहुँचाती रही है। साथ ही, मुस्लिम समाज के अंदर सुधारवादी लोगों को असहाय बनाती है।
(७) दरअसल, जिहादी आतंकवादियों द्वारा बम और छुरे से हमला करना, आत्मघाती हमले या सामूहिक हत्याएं करना मूल समस्या नहीं है । वह तो समस्या का एक लक्षण भर है। आतंकवाद एक कार्यनीति है, मूल समस्या नहीं। यह एक साधन मात्र है। जैसे दो देशों के बीच युद्ध में मिसाइलें, बमवर्षक जहाज या पनडुब्बी किसी पक्ष के साधन होते हैं। उसी तरह इस्लामवाद नामक समस्या या पक्ष की ओर से आंतकवाद एक साधन मात्र है। यह गैर-मुस्लिम विश्व और मुस्लिमों में भी उदारवादियों को अपनी इच्छा के प्रति झुकाने का एक हथियार है । उस के दूसरे हथियार भी हैं जो इसी उद्देश्य से प्रयोग किए जा रहे हैं। अतः जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष को शेष मामलों - जैसे रोजमर्रे के चित्र-विचित्र फतवे, खुमैनी, तसलीमा, मदरसों की दुनिया, यहूदी विरोध, 'शार्ली अब्दो' पत्रकारों की हत्या, कार्टून विवाद, जनसांख्यिकी दबाव, आप्रवासन नीति, इस्लामी बैंकिंग, कश्मीरी अलगाववाद, तीन तलाक, आदि - से अलग-थलग करके सफल बनाया नहीं जा सकता। इस्लामी एकाधिकार या विशेषाधिकार का अंधविश्वास, जिद या चाह मूल समस्या है । यह किसी एक देश या क्षेत्र की नहीं, वरन पूरी दुनिया की समस्या है।
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# अतः इस बात की नितांत आवश्यकता है कि हर मामले में मुसलमानों के बीच निरपवाद रूप से सुधारवादी, मानवतावादी तत्वों को ही प्रमुखता दी जाए । इतिहास में भी वैसे ही मुस्लिम शासकों, मनीषियों को प्रमुखता दी जाए, जो सच्चे मानवतावादी रहे हैं - जैसे मंसूर, दाराशिकोह, मीर, गालिब, बुल्लेशाह, राबिया, आदि वैसे लोग जिन्होंने सामान्य मानवीय विवेक को इस्लामी विश्वासों के बराबर या बढ़कर महत्व दिया था। वास्तव में आज भी वैसे लोग ही मुस्लिम विश्व में, विशेषकर अरब देशों में अधिक है। किंतु उन्हें विश्वास में लेने और प्रोत्साहित करने का यत्न नहीं होता । उन के साथ खुला और सत्यनिष्ठ संवाद आवश्यक है । ताकि वे मुस्लिम समाज को इस के लिए तैयार कर सकें कि इस्लामी विश्वासों, परंपराओं में अपेक्षित सुधार करने से उन की प्रतिष्ठा नहीं गिरेगी, कि यह सुधार लंबे समय से अपेक्षित है और ऐसा करने से मुसलमानों को हानि नहीं होगी, कि दुनिया के दूसरे देशों, लोगों के साथ सच्ची समानता और सौहार्द के लिए ही नहीं, बल्कि स्वयं अपनी नैतिक-भौतिक उन्नति के लिए भी आधुनिकता के साथ संजीदा संबंध बनाया जाना चाहिए। जब ऐसे मुस्लिम प्रतिनिधि अपने समाज में एक प्रमुख स्थान प्राप्त करेंगे तभी उन में मदरसों, मस्जिदों में जाकर उग्रवादियों की बत्ती गुल कर सकने का साहस होगा।
 
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(८) इस अर्थ में भी आज इस्लामवादी विचारधारा की स्थिति १९७० के दशक वाली कम्युनिस्ट विचारधारा के समान है। तब सारी दुनिया के कम्युनिस्ट मार्क्सवाद को स्वयंसिद्ध विज्ञान मानते थे । तदनुरूप अमेरिका, यूरोप के पूँजीवाद के नष्ट होने तथा कम्युनिस्ट विश्व-विजय का अंधविश्वास पालते थे। किंतु दिनो-दिन वास्तविकता उन्हें मुश्किल में डाल रही थी, क्योंकि मार्क्सवाद-लेनिनवाद का प्रत्येक मूलभूत सूत्र निरर्थक होता दिख रहा था । छल-बल और सेंसरशिप से ही कम्युनिस्ट प्रगति के झूठे विवरण दुनिया भर में फैलाए जाते थे। उसी प्रकार, आज इस्लामवाद भी अपने अंधविश्वासों का बचाव करने में दिनों-दिन निर्बल दिख रहा है। सदैव हिंसा की भाषा इसी का प्रमाण है। तर्क और विवेक से सिनेमा, फोटोग्राफी, हजामत या कार्टून बनाने का विरोध और तीन तलाक या हलाल जैसी गंदी प्रथा का समर्थन कैसे किया जा सकता है? जैसे-तैसे कुछ कहा भी जाए तो उसे कौन मानेगा? निश्चय ही कोई मुसलमान भी स्वयं ऐसे तर्क नहीं देगा। इसीलिए एक ओर आज अनेक इस्लामी निर्देशों, आदेशों को दरकिनार कर लाखों मुस्लिम न केवल सिनेमा देखते हैं, संगीत सुनते हैं, चित्र बनाते हैं, दर्शन और साहित्य पढ़ते हैं, क्लीन शेव करते और पश्चिमी पोशाकें पहनते हैं, लोकतांत्रिक कानून मानते हैं और इस प्रकार व्यवहार में शरीयत की उपेक्षा करते हैं। तो दूसरी ओर, इस्लामी कट्टरपंथी अपने मध्ययुगीन ‘एक मात्र सत्य' को पूरी दुनिया पर बलपूर्वक लागू करने के लिए जिहादी दस्ते बनाते हैं । दोनों ही प्रक्रियाएं चल रही हैं, बल्कि अपने-अपने तरीके से तीव्र हो रही हैं। इन का समाधान इस्लामी विश्व में (१९८० के दशक वाले सोवियत रूस जैसे) किसी ग्लासनोस्त और पेरेखोइका का इंतजार कर रहा है। स्वयं अरब देशों में इस्लामी कट्टरता के कम आंदोलन इसी का संकेत है।
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(९) मोरक्को, सऊदी अरब, मलेशिया जैसे कुछ मुस्लिम देशों में और दुनिया भर के मुस्लिम लेखकों, पत्रकारों में इस पर विचार और संघर्ष हो रहा है कि इस्लामी किताबों के हिंसा के आवाहन वाले और अशोभनीय अंशों को किसी न किसी रूप में त्याग दिया जाए। एक महत्वपूर्ण इस्लामी देश मोरक्को के युवा शासक किंग मुहम्मद छठवें ने भी इस्लामी विधानों में स्पष्ट सुधार का प्रयत्न आरंभ किया है। उन्होंने २००४ में अपने देश में परिवार संबंधी 'मुदवाना' नामक एक नई कानून संहिता लागू की । इस में स्त्रियों को अधिक अधिकार दिए गए हैं । इस के अनुसार बहु-पत्नी प्रथा पर व्यवहार में कड़े प्रतिबंध लगा दिए गए हैं। यह सब स्पष्टतः पारंपरिक इस्लामी शरीयत नियमों से भिन्न हैं। उन्होंने राज्यनीति में लोकतंत्र को भी बढ़ावा देने का कार्य आरंभ किया है। कट्टरपंथियों ने इन प्रयासों का विरोध भी किया है। इसी तरह सऊदी अरब के एक सुधारवादी मौलाना मंसूर अल-नोगीदान ने आवाहन किया है कि इस्लामी मूल विश्वासों में सुधार अपेक्षित है। उन के अपने शब्दों में, 'इस्लाम में सुधार की जरूरत है । इस के लिए ऐसे व्यक्ति की जरूरत है जिस में मार्टिन लूथर जैसा साहस हो । ... यह इस्लाम के भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है।' उन के विचार में कुरान की पुनर्व्याख्या करके यह घोषित करना जरूरी है कि अल्लाह सभी धर्मों के श्रद्धालुओं को प्यार करता है, केवल इस्लाम को मानने वालों को ही नहीं । मंसूर इस विचार का विरोध करने वाले प्रभावी उलेमा को चुनौती देना भी आवश्यक समझते हैं। सीरिया के विद्वान मुहम्मद शाहरूर ने भी इस्लाम में सुधार के प्रश्न को मजबूती से उठाया है। इस्लाम के संस्थापक और इतिहास के अध्ययन से उन का मानना है कि प्रोफेट मुहम्मद ने जो राज्य स्थापित करने की कोशिश की, वह विफल रही थी। उन का बनाया राज्य तो खत्म हो गया, पर उन का संदेश अभी भी जीवित है । इसलिए मजहब और राज्य नीति में अंतर स्थापित करना चाहिए । कई यूरोपीय देशों में इस्लाम से मुक्त मुस्लिम भी संगठित हो कर अपनी आवाज उठा रहे हैं कि दूसरे धर्मों की तरह मुस्लिमों के बीच भी नास्तिकों या स्वतंत्र विचार वालों को सामान्य अधिकार मिले। अभी तक मुस्लिम समाजों में इस्लाम छोड़ने की बात करना मौत को आमंत्रण देना है, क्योंकि इस्लाम में यही सजा निर्धारित है। इस तरह के सुधारवादी, सेक्यूलर प्रयास अनेकानेक मुस्लिम लेखकों, विचारकों द्वारा भी हो रहे हैं। कई लोग अनाम रहकर यह कार्य कर रहे हैं क्योंकि उन्हें इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा मारे जाने का सीधा खतरा है । इब्न बराक, तसलीमा नसरीन, वफा सुलतान, अय्यान हिरसी अली, जैसे कुछ नाम तो जाने-माने हैं। पर और भी मुस्लिम इस दिशा में काम कर रहे हैं। उन से पता चलता है कि इस्लाम संबंधी आलोचनात्मक विमर्श आगे बढ़ रहा है। यह कहीं न कहीं मुस्लिम मानस में हो रहे मंथन का प्रतिबिंब है । कट्टरपंथियों के हाथों मौत का भय न रहे तो यह विचार-विमर्श स्वयं आशातीत परिणामों तक पहुँच सकता है।
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(१०) जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध सैनिक, भौतिक लड़ाई भी आवश्यक है। किंतु इस के लिए वृहत्तर सहयोग अनिवार्य है। अमेरिका ने जैसे 'इच्छकों का सहमेल' (कोएलीशन ऑफ विलिंग) बनाया, उस में खामियाँ थीं। जॉर्ज बुश और टोनी ब्लेयर इसीलिए अपने प्रयासों को विश्वसनीय नहीं बना सके क्योंकि उन्होंने अपने राष्ट्रीय हितों को प्रमुखता दी । भारत जैसे हिन्दू देश के जिहादी आतंकवाद के हाथों उत्पीड़न को कम करके या उपेक्षा के साथ देखा । इसीलिए भारत के साथ सहयोग के बजाए पाकिस्तान के उपयोग की नीति बनाई, ताकि अफगानिस्तान में जमे उन आतंकवादी संगठनों को हराया जा सके जो मुख्यतः अमेरिका को निशाना बनाते हैं। बदले में, पाकिस्तान ने अपने इस्लामी-राष्ट्रीय एजेंडा के लिए लाभ उठाया। राष्ट्रपति मुशर्रफ ने अमेरिका को सीमित सहयोग देते हुए उसी के सहयोग से अपना कश्मीर एजेंडा और भारत-विरोधी जिहाद को बल पहुँचाया । अमेरिकी और यूरोपीय नीति-निर्माता इसे समझ कर भी मौन रहे । इस स्वार्थपूर्ण और संकीर्ण नीति ने अमेरीकियों के आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध को कमजोर बनाया । भारत द्वारा झेले जा रहे आतंकवाद की उपेक्षा की गई ताकि पाकिस्तानी शासक और सेना अमेरिकी चिंताओं के समाधान में मदद करें। किंतु यह जिहादी आतंकवाद नितांत वैश्विक है, भौतिक और रणनीति दोनों रूपों से । जो जिहादी भारत पर नजर गड़ाए हुए हैं, वही सीधे या दूसरे सूत्रों के साथ अमेरिका, यूरोप और इजराइल के विरुद्ध भी लगे हैं। उसी तरह, जो अभी अमेरिका को निशाना बना रहे हैं, वही बाद में भारत पर भी कब्जे का मनसूबा रखते हैं । इस्लामी स्टेट ने अपने भविष्य के नक्शे में भारत को मुगलिस्तान जैसा चिन्हित किया है। अतः जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध वृहत्तर मोर्चा बनाना अनिवार्य है।
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(११) जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध मोर्चे में मुस्लिम सुधारवादियों को भी जोड़ना आवश्यक है । इस बिन्दु पर भी अमेरिकी, यूरोपीय और भारतीय नीति-निर्माताओं ने गलती की है। तुर्की जैसे सब से उदार मुस्लिम देश में, जिस ने पिछले आठ दशक से इस्लामी कट्टरपंथ को खारिज कर रखा है, वहाँ भी संकीर्ण स्वार्थ में अमरीकियों ने बढ़ते कट्टरपंथियों के प्रति उदार रवैया अपनाया। वे तुर्की को इस्लामी लोकतांत्रिक' बताते हुए दूसरे देशों के मुसलमानों के समक्ष मॉडल के रूप में पेश करने लगे। इस से तुर्की में इस्लामपंथियों को मदद मिली और सच्चे सेक्यूलर लोग दुःखी हए। वे स्वयं को लोकतांत्रिक मानते हैं, उसी तरह जैसे यूरोप लोकतांत्रिक है, कोई ईसाई लोकतांत्रिक' नहीं। किंतु अमेरिकी अपनी संकीर्ण बुद्धि में मुसलमानों के बीच सच्चे सुधारवादियों को खुला सहयोग न देकर कट्टरपंथियों के साथ मेल-मिलाप और राजनीति करते रहे हैं । इस से सुधारवादी मुसलमानों की उपेक्षा होती है। यही बात भारत जैसे देशों में भी है। सरकारी गैरसरकारी संस्थानों और मीडिया में प्रभावी लोग सुधारवादी मुस्लिम प्रतिनिधियों के बजाए कट्टरपंथी उलेमा और नेताओं को तरजीह देते हैं । अब्दुल कलाम जैसे अनूठे व्यक्ति को अपने कार्य में अपूर्व लोकप्रियता हासिल रहने के बावजूद उन्हें राष्ट्रपति पद पर दूसरा कार्यकाल न दिया जाना इस का सब से प्रतिनिधि उदाहरण था । तसलीमा नसरीन को भारतीय नागरिकता न देना, उन्हें यहाँ बौद्धिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक गतिविधियों में निमंत्रित न करना, आदि उसी का अन्य बड़ा उदाहरण है। उन्हें तथा उन के जैसे लोगों को मुस्लिम प्रतिनिधि के रूप में स्थापित करने का कोई यत्न नहीं होता । जब कि तरह-तरह के कट्टरपंथी, उग्रवादी मुस्लिम नेताओं को संतुष्ट करने के प्रयास सभी नेता, मीडिया और बौद्धिक करते रहते हैं ।
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(१२) भारत में एक विशेष समस्या राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों की डरू नीति भी है। यह इतने भीरु और अनिश्चय में डूबे लोग हैं कि अपनी पहचान तक से इन्कार करते हैं। इसीलिए उग्रवाद और कट्टरपंथ को पीढ़ियों से झेलते हुए भी मिथ्याचार में जीते हैं । न केवल वे जो दोषपूर्ण शिक्षा के प्रभाव में गंभीर तथ्यों से अनजान रखे गए हैं; बल्कि वे भी जो सब कुछ जानते-समझते हैं, एक आत्महन्ता मिथ्याचार का पोषण करते हैं। इस तरह, मानो एक सचेत नीति के अंतर्गत हमारा राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग उग्रवाद और आतंक की प्रत्येक अभिव्यक्ति के प्रति सहनशील रहा है। यहाँ तक कि वह उस के अस्तित्व से ही इन्कार करता है। इस के अलावा सत्ता के लिए राजनीतिक प्रतिद्वंदिता में वोटों के लालच में कई बार कट्टरपंथियों को बढ़ावा दिया है । यह जानते हुए भी कि इस प्रवृत्ति से एक बार भारत के टुकड़े हो चुके हैं, वे अपनी संकीर्ण लालसा से उबर नहीं पाते और देश को कट्टरपंथियों की दया पर छोड़ रहे हैं । यद्यपि यह केवल हमारा रोग नहीं रह गया है । यूरोप के अनेक देशों में भी यही प्रवृत्ति है। अतः इस्लामी एकांतिकता-उग्रवाद-विस्तारवाद की समस्या अंततः स्वयं मुस्लिम समाज के बीच, उन के अपने आत्म-संघर्ष और प्रयासों से ही सुलझेगी। विशेषकर अरब, ईरान में किसी मूलगामी परिवर्तन से, जैसे कम्युनिज्म के साथ हुआ ।
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(१३) इस बीच, शेष विश्व, विशेषकर गैर-मुस्लिम विश्व को अपनी नीति को ठोस सचाइयों और विवेक पर दृढ़ करना होगा। यदि वे जिहादी शक्तियों से बचकर रहना चाहें और उन के साथ सैनिक लड़ाई न भी लड़ना चाहें (जो सदा उन के हाथ में नहीं है), तब भी इतना तो वे कर ही सकते हैं कि विचारों के क्षेत्र में अनम्य रहें। जो बातें नैतिक, दार्शनिक, संवैधानिक या मानवीय कसौटियों पर अनुचित हो - उसे किसी मजहबी ‘भावना' के नाम पर तरह न दें। क्योंकि यह तो हर हाल में केवल इस्लामी कट्टरपंथियों को बल पहुँचाती रही है। साथ ही, मुस्लिम समाज के अंदर सुधारवादी लोगों को असहाय बनाती है।
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(१४) अतः इस बात की नितांत आवश्यकता है कि हर मामले में मुसलमानों के बीच निरपवाद रूप से सुधारवादी, मानवतावादी तत्वों को ही प्रमुखता दी जाए । इतिहास में भी वैसे ही मुस्लिम शासकों, मनीषियों को प्रमुखता दी जाए, जो सच्चे मानवतावादी रहे हैं - जैसे मंसूर, दाराशिकोह, मीर, गालिब, बुल्लेशाह, राबिया, आदि वैसे लोग जिन्होंने सामान्य मानवीय विवेक को इस्लामी विश्वासों के बराबर या बढ़कर महत्व दिया था। वास्तव में आज भी वैसे लोग ही मुस्लिम विश्व में, विशेषकर अरब देशों में अधिक है। किंतु उन्हें विश्वास में लेने और प्रोत्साहित करने का यत्न नहीं होता । उन के साथ खुला और सत्यनिष्ठ संवाद आवश्यक है । ताकि वे मुस्लिम समाज को इस के लिए तैयार कर सकें कि इस्लामी विश्वासों, परंपराओं में अपेक्षित सुधार करने से उन की प्रतिष्ठा नहीं गिरेगी, कि यह सुधार लंबे समय से अपेक्षित है और ऐसा करने से मुसलमानों को हानि नहीं होगी, कि दुनिया के दूसरे देशों, लोगों के साथ सच्ची समानता और सौहार्द के लिए ही नहीं, बल्कि स्वयं अपनी नैतिक-भौतिक उन्नति के लिए भी आधुनिकता के साथ संजीदा संबंध बनाया जाना चाहिए। जब ऐसे मुस्लिम प्रतिनिधि अपने समाज में एक प्रमुख स्थान प्राप्त करेंगे तभी उन में मदरसों, मस्जिदों में जाकर उग्रवादियों की बत्ती गुल कर सकने का साहस होगा।
      
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