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(१) जिहादी आतंकवाद ने केवल भारत, अमेरिका या यूरोप को ही निशाने पर नहीं रखा हुआ है। पिछले दो-तीन दशक से उस ने स्वयं मुस्लिम देशों, पश्चिम एशिया की लगभग हर राज्यसत्ता को भी चुनौती दी है। अभीअभी ईरान की संसद पर हमला करने वालों ने गर्व से दुहराया है, कि यही काम वे सउदी अरब और अन्य मुस्लिम देशों में भी करेंगे । वह राज्यसत्ताएं मुस्लिम हाथों में ही हैं । किंतु उन मुस्लिमों के जिन्होंने समय के साथ अनेक मूल इस्लामी मान्यताओं, निर्देशों से दूरी बना ली है अथवा जो सामाजिक-राजनीतिक जीवन के कई मामलों में सभी इस्लामी आदेशों को लागू करने में रुचि नहीं रखते । ऐसे शासकों से कट्टर इस्लामी और जिहादी संगठन नाराज रहे हैं। इसीलिए ऐसे इस्लामपंथियों ने पहले उन्हीं को निशाने पर रखा था। जब वे उस में विफल हुए, तब उन का कोप पश्चिमी देशों की ओर बढ़ा।
 
(१) जिहादी आतंकवाद ने केवल भारत, अमेरिका या यूरोप को ही निशाने पर नहीं रखा हुआ है। पिछले दो-तीन दशक से उस ने स्वयं मुस्लिम देशों, पश्चिम एशिया की लगभग हर राज्यसत्ता को भी चुनौती दी है। अभीअभी ईरान की संसद पर हमला करने वालों ने गर्व से दुहराया है, कि यही काम वे सउदी अरब और अन्य मुस्लिम देशों में भी करेंगे । वह राज्यसत्ताएं मुस्लिम हाथों में ही हैं । किंतु उन मुस्लिमों के जिन्होंने समय के साथ अनेक मूल इस्लामी मान्यताओं, निर्देशों से दूरी बना ली है अथवा जो सामाजिक-राजनीतिक जीवन के कई मामलों में सभी इस्लामी आदेशों को लागू करने में रुचि नहीं रखते । ऐसे शासकों से कट्टर इस्लामी और जिहादी संगठन नाराज रहे हैं। इसीलिए ऐसे इस्लामपंथियों ने पहले उन्हीं को निशाने पर रखा था। जब वे उस में विफल हुए, तब उन का कोप पश्चिमी देशों की ओर बढ़ा।
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(२). जिहादी आतंकवाद को खत्म करने में आधुनिकतम हथियारों से सुसज्जित सेनाएं असमर्थ रही हैं । अफगानिस्तान और पाकिस्तान का पिछले पंद्रह वर्षों से यही परिदृश्य है । अमेरिका द्वारा चलाया गया ‘आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध' (वार ऑन टेरर) जीता नहीं जा सका । तालिबानों को मिटा देने की प्रतिज्ञा के साथ ब्रिटेन को अपना सैनिक अभियान अफगानिस्तान से चुपचाप, निष्फल खत्म करना पड़ा। यह पिछले सौ साल में ब्रिटेन का सब से विशाल, मँहगा सैनिक अभियान था । अमेरिकी प्रशासन ने भी बराक ओबामा के दूसरे कार्यकाल में उन्हीं तालिबानों के साथ किसी प्रकार का समझौता या बात-चीत का प्रयास किया, जिसे मिटाने के लिए अमेरिका वहाँ पंद्रह साल से जमा हुआ है। यह सब प्रमाण है कि जिहादी आतंकवाद के बारे में समझ और नीति दोनों ही अनुपयुक्त रही है । इस आतंकवाद के प्राण इस की विचारधारा में बसते हैं - उन आतंकवादी सरदारों और संगठनों में नहीं जिन पर प्रहार कर आतंकवाद को हराने की कोशिशें हो रही हैं।
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(३) अमेरीकियों ने अल कायदा, तालिबान, बिन लादेन, मुल्ला उमर, आदि को केवल लड़ाकों के रूप में देखा जिसे अधिक शक्ति का प्रयोग करके वे हरा देना चाहते थे। उन्होंने जिहादी विचार को कम करके आँका । केवल हथियार, सेना और धन से उन का मूल्यांकन करके उन्हें बहुत छोटा समझा । यह भूल थी। वे ध्यान देने में चूक गए कि दुनिया भर के उग्रवादी, जिहादी और कट्टरपंथी संगठन किन भावनाओं - किस दर्शन - से संचालित हो रहे हैं। यदि जिहादियों को मौत का भय नहीं, यदि उन्हें अपने हारने का कोई कारण ही नहीं दिखता, यदि उन्हें पश्चिमी देशों के जीवन और कार्य के नीच होने के प्रति कोई संदेह ही नहीं है, तो क्यों, किस आधार पर है? इसे निर्धारित किए बिना केवल सैनिकी रणनीति बनाना निश्चय ही भूल है । जिहादियों का दार्शनिक विश्वास गंभीरता पूर्वक ध्यान दिए जाने की माँग करता है, जबकि उस की सरसरी उपेक्षा की गई । बल्कि उसके अस्तित्व से ही इन्कार किया गया । वह स्थिति आज भी बहुत नहीं बदली है।
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(४) अतः जिहादी आतंकवाद की विचारधारा की शक्ति, स्त्रोत और भूमिका तीनों पर विचार करना चाहिए । अन्यथा पूरे मामले को समझना असंभव होगा। विभिन्न देशों में इस्लामी कट्टरपंथ, उग्रवाद अथवा जिहादी आतंकवाद के उदय और विकास की कुछ स्थानीय विशेषताएं भी हैं। किंतु उन में जो सामान्य तत्व हैं, समस्या का मूल उन्हीं में है।
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(५) उदारवादी मुस्लिम अपने समाज के कट्टरपंथी तत्वों के समक्ष सदैव असहाय हो जाते हैं इस का कारण खोजने और समझने की जरूरत है । यह हिंसा के भय से अधिक वैचारिक निहत्थेपन के कारण है। क्योंकि संपूर्ण मुस्लिम विमर्श, चाहे उदारवादी हो या कट्टरपंथी, इस्लाम को ही मानक संदर्भ मानकर चलता है। लेकिन इस्लामी दर्शन में कभी भी मानवता, लोकतंत्र, न्याय, शांति, भाईचारा की सार्वभौमिक मान्यताओं को महत्व नहीं दिया जाता । यह सब धारणाएं मुस्लिम आलिम, उलेमा के लिए इस्लाम की कसौटी पर तुच्छ हैं। उन के लिए न्याय का मतलब 'इस्लामी न्याय' है । लोकतंत्र का अर्थ 'इस्लामी लोकतंत्र' और कानून केवल इस्लामी कानून' है। इसी तरह नैतिकता, शिक्षा, विवेक, भाईचारा सब कुछ इस्लाम के अधीन है । गैर-इस्लामी जन-समुदाय के प्रति रुख भी इस्लाम की मान्यताओं के आधार पर तय होता है। यहाँ तक कि आतंकवादी कार्रवाइयों की भर्त्सना भी इस्लाम का हवाला देकर ही की जाती रही है। तब इस्लामी जिहादियों, आतंकवादियों के ही विचारों, कार्यों को इस्लाम से अलग करके कैसे देखा जा सकता है जो सारी दुनिया में केवल इस्लामी साम्राज्य लाने के लक्ष्य से ही प्रेरित हैं? उन का कोई अन्य लक्ष्य है ही नहीं, यह वे डंके की चोट पर हजारों बार कह चुके हैं। तब उन की गतिविधियों को उन आदेशों से अलग कैसे किया जा सकता है जो इस्लामी ग्रंथों में बार-बार काफिरों के लिए दुहराए गए हैं? उदारवादी मुसलमानों के लिए असल समस्या यहीं खड़ी होती है, जब वे आतंकवादियों को इस्लाम से अलग करने का प्रयास करते हैं ।
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(६) यदि जिहादी आतंकवादी इस्लाम से पृथक हैं, तो किसी भी आतंकवादी के विरुद्ध आज तक किसी इस्लामी संस्थान ने फतवा क्यों नहीं दिया, भारत में भी सिमी, लश्करे-तोयबा, इंडियन मुजाहिदीन, आदि के विरुद्ध? उलटे हर प्रकार के जिहादी के पकड़े जाने या मारे जाने पर उस के प्रति सहानुभूति, उसे निर्दोष बताने या उसे खुलेआम हीरो मानने - जैसा भारतीय संसद पर आतंकरी हमले के दोषी मुहम्मद अफजल के मामले में यहाँ देखा गया - का चलन दुनिया भर के आम मुस्लिम नेताओं के बीच देखा गया है। अतः कथित उदारवादी इस्लाम और उग्रवादी इस्लाम के बीच वास्तव में कोई सैद्धांतिक या सांस्कृतिक विभाजन नहीं किया जा सकता। इस्लामी किताबों या निर्देशों में कहीं ऐसा विभेद नहीं है। यही कारण है कि जो मुसलमान सच्चे उदारवादी हैं, वे भी इस्लामी उग्रवाद की अभिव्यक्तियों पर कुछ नहीं कहते । कह नहीं पाते । वे जानते हैं कि वह हृदय से जो कहना चाहेंगे उस के लिए इस्लामी सिद्धांत, व्यवहार और इतिहास में कोई ठोस, सर्वस्वीकृत समर्थन नहीं है।
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(७) दरअसल, जिहादी आतंकवादियों द्वारा बम और छुरे से हमला करना, आत्मघाती हमले या सामूहिक हत्याएं करना मूल समस्या नहीं है । वह तो समस्या का एक लक्षण भर है। आतंकवाद एक कार्यनीति है, मूल समस्या नहीं। यह एक साधन मात्र है। जैसे दो देशों के बीच युद्ध में मिसाइलें, बमवर्षक जहाज या पनडुब्बी किसी पक्ष के साधन होते हैं। उसी तरह इस्लामवाद नामक समस्या या पक्ष की ओर से आंतकवाद एक साधन मात्र है। यह गैर-मुस्लिम विश्व और मुस्लिमों में भी उदारवादियों को अपनी इच्छा के प्रति झुकाने का एक हथियार है । उस के दूसरे हथियार भी हैं जो इसी उद्देश्य से प्रयोग किए जा रहे हैं। अतः जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष को शेष मामलों - जैसे रोजमर्रे के चित्र-विचित्र फतवे, खुमैनी, तसलीमा, मदरसों की दुनिया, यहूदी विरोध, 'शार्ली अब्दो' पत्रकारों की हत्या, कार्टून विवाद, जनसांख्यिकी दबाव, आप्रवासन नीति, इस्लामी
    
==References==
 
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