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== भारतीय तत्वज्ञान और जीवन दृष्टि पर आधारित व्यवहार सूत्र ==
 
== भारतीय तत्वज्ञान और जीवन दृष्टि पर आधारित व्यवहार सूत्र ==
भारतीय मान्यता के अनुसार कण कण, चर अचर सब परमात्मा के ही रूप हैं : <blockquote>'''एकाकी न रमते'''<nowiki/>', '<nowiki/>'''सो कामयत्'''<nowiki/>',  ''''एकोऽहं बहुस्याम:'''<nowiki/>' । </blockquote>सारी सृष्टि यह उस परमात्त्व तत्व का ही विस्तार मात्र है। इस लिये सृष्टि के सारे घटक एक दूसरे से 'आत्मीयता' के भाव से जुडे हैं। समाज निर्माण और परस्पर सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों के बारे में श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता, 3.10 एवं 3.11</ref><blockquote>'''सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:'''</blockquote><blockquote>'''अनेन प्रसविश्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक ॥ 3.10 ॥'''</blockquote>अर्थ है - प्रजापति ब्रह्मा ने यज्ञ ( अन्यों के हित के काम) के साथ प्रजा को निर्माण किया और कहा कि परस्पर हित साधते हुए उत्कर्ष (प्रगति) करो। यह है परस्पर सामाजिक संबंधों का आधार। आगे कहा है<blockquote>'''देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:'''</blockquote><blockquote>'''परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ ॥ 3.11 ॥'''</blockquote>अर्थ है - देवताओं ( वायू, वरुण, अग्नि, पृथ्वी आदि यानी पर्यावरण) का पोषण करते हुए नि:स्वार्थ भाव से परस्पर हित साधते हुए परम कल्याण को प्राप्त करो। यह है पर्यावरण से संबंधों का आधार।
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भारतीय मान्यता के अनुसार कण कण, चर अचर सब परमात्मा के ही रूप हैं : <blockquote>'''एकाकी न रमते'''<nowiki/>', '<nowiki/>'''सो कामयत्'''<nowiki/>',  ''''एकोऽहं बहुस्याम:'''<nowiki/>' ।</blockquote>सारी सृष्टि यह उस परमात्त्व तत्व का ही विस्तार मात्र है। इस लिये सृष्टि के सारे घटक एक दूसरे से 'आत्मीयता' के भाव से जुडे हैं। समाज निर्माण और परस्पर सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों के बारे में श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता, 3.10 एवं 3.11</ref><blockquote>'''सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:'''</blockquote><blockquote>'''अनेन प्रसविश्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक ॥ 3.10 ॥'''</blockquote>अर्थ है - प्रजापति ब्रह्मा ने यज्ञ ( अन्यों के हित के काम) के साथ प्रजा को निर्माण किया और कहा कि परस्पर हित साधते हुए उत्कर्ष (प्रगति) करो। यह है परस्पर सामाजिक संबंधों का आधार। आगे कहा है<blockquote>'''देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:'''</blockquote><blockquote>'''परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ ॥ 3.11 ॥'''</blockquote>अर्थ है - देवताओं ( वायू, वरुण, अग्नि, पृथ्वी आदि यानी पर्यावरण) का पोषण करते हुए नि:स्वार्थ भाव से परस्पर हित साधते हुए परम कल्याण को प्राप्त करो। यह है पर्यावरण से संबंधों का आधार।
    
उपर्युक्त तत्वज्ञान पर आधारित भारतीय जीवन दृष्टि के सूत्र निम्न हैं:
 
उपर्युक्त तत्वज्ञान पर आधारित भारतीय जीवन दृष्टि के सूत्र निम्न हैं:
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इस व्यवस्था समूह की व्यवस्था के तीन पहलू थे। '''पोषक''' व्यवस्था, '''रक्षक''' व्यवस्था और '''प्रेरक''' व्यवस्था। इन में प्रेरक व्यवस्था तब ही ठीक से काम कर सकती है जब उस के साथ में पोषक और रक्षक व्यवस्था भी काम करती है। इस लिये समाज की सभी व्यवस्थाओं में यह तीनों पहलू विकेंद्रित स्वरूप में ढाले गये थे। प्रेरक यानी शिक्षा व्यवस्था का काम समाज को धर्माचरण सिखाने का था। भारतीय प्रतिमान में प्रेरक व्यवस्थाओं को अत्यंत श्रेष्ठ स्थान दिया गया है। समाज के ९०-९५ प्रतिशत लोगों को धर्माचरणी बनाना शिक्षा व्यवस्था का काम है। जो ५-१० प्रतिशत लोग इस प्रेरक व्यवस्था के प्रयासों के उपरांत भी अधर्माचरण करते थे, उन के लिये ही शासन व्यवस्था यानी दण्ड विधान की आवश्यकता होती है। यदि प्रेरक और पोषक व्यवस्थाओं के माध्यम से समाज के ९०-९५ प्रतिशत लोगों को धर्माचरणी नहीं बनाया गया तो रक्षक व्यवस्था ठीक से काम नहीं कर सकती। यूरो अमरिकी शिक्षा की दस पीढियाँ बीतने के बाद भी यदि अब भी काफी मात्रा में यूरोप या अमरिकी समाजों की तुलना में हम 'पारिवारिक भावना' को अभी तक बचा पाए हैं तो वह अभी भी अपना अस्तित्व बनाए रखने वाली समानान्तर '''शिक्षा व्यवस्था''', '''परिवार व्यवस्था''' और '''समाज व्यवस्था''' आदि के कारण है।  
 
इस व्यवस्था समूह की व्यवस्था के तीन पहलू थे। '''पोषक''' व्यवस्था, '''रक्षक''' व्यवस्था और '''प्रेरक''' व्यवस्था। इन में प्रेरक व्यवस्था तब ही ठीक से काम कर सकती है जब उस के साथ में पोषक और रक्षक व्यवस्था भी काम करती है। इस लिये समाज की सभी व्यवस्थाओं में यह तीनों पहलू विकेंद्रित स्वरूप में ढाले गये थे। प्रेरक यानी शिक्षा व्यवस्था का काम समाज को धर्माचरण सिखाने का था। भारतीय प्रतिमान में प्रेरक व्यवस्थाओं को अत्यंत श्रेष्ठ स्थान दिया गया है। समाज के ९०-९५ प्रतिशत लोगों को धर्माचरणी बनाना शिक्षा व्यवस्था का काम है। जो ५-१० प्रतिशत लोग इस प्रेरक व्यवस्था के प्रयासों के उपरांत भी अधर्माचरण करते थे, उन के लिये ही शासन व्यवस्था यानी दण्ड विधान की आवश्यकता होती है। यदि प्रेरक और पोषक व्यवस्थाओं के माध्यम से समाज के ९०-९५ प्रतिशत लोगों को धर्माचरणी नहीं बनाया गया तो रक्षक व्यवस्था ठीक से काम नहीं कर सकती। यूरो अमरिकी शिक्षा की दस पीढियाँ बीतने के बाद भी यदि अब भी काफी मात्रा में यूरोप या अमरिकी समाजों की तुलना में हम 'पारिवारिक भावना' को अभी तक बचा पाए हैं तो वह अभी भी अपना अस्तित्व बनाए रखने वाली समानान्तर '''शिक्षा व्यवस्था''', '''परिवार व्यवस्था''' और '''समाज व्यवस्था''' आदि के कारण है।  
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उपर्युक्त ढाँचा भारतीय प्रतिमान की मोटी मोटी अभिव्यक्ति है। इस में धर्म व्यवस्था सामाजिक नीति नियम अर्थात् धर्माचरण के व्यावहारिक सूत्र तय करने का और अधर्माचरण के व्यवहार के लिये दण्ड विधान बनाने का काम करती है। अर्थात् शास्त्रीय भाषा में '''श्रृति के आधार पर 'स्मृति' निर्माण करने का काम''' करती है। इस प्रकार प्रेरक, पोषक तथा निवारक/रक्षक ऐसी तीनों व्यवस्थाओं का मार्गदर्शन करती है। इस मार्गदर्शन का माध्यम शिक्षा व्यवस्था होती है। इस लिये शिक्षा का या ज्ञानसत्ता का स्थान धर्मसत्ता से नीचे किन्तु शासन की अन्य सत्ताओं से ऊपर का होता है। ब्रह्मचर्य आश्रम, गुरूकुल या विद्याकेन्द्र और कुछ प्रमाण में परिवारों में भी वर्णानुसारी और जीवन के लिये उपयुक्त ऐसे सभी पहलुओं की शिक्षा दी जाती है। लोग जब वर्ण के अनुसार व्यवहार करते हैं तब समाज सुसंस्कृत बनता है। और जब लोग अपनी अपनी जाति के अनुसार व्यवसाय करते हैं समाज समृध्द बनता है। रक्षक या निवारक व्यवस्थाएं समाज और व्यक्तियों की संस्कृति और समृध्दि की रक्षा के लिये होती हैं। वर्ण और आश्रम यह व्यवस्थाएं समाज की रचना की व्यवस्थाएं हैं। परिवार व्यवस्था श्रेष्ठ मानव को जन्म देकर उसे वर्णानुसार संस्कारित करने की व्यवस्था है। यह व्यवस्था पारिवारिक भावना के विकास की भी व्यवस्था है। यह समाज व्यवस्था का लघु-रूप है। सामाजिकता की शिक्षा की नींव डालना परिवार व्यवस्था का काम है। इस कारण इस में पोषक, प्रेरक और रक्षक ऐसी तीनों व्यवस्थाओं का समावेश होता है। इसी प्रकार से जन्म से लेकर मृत्यू पर्यंत तक मनुष्य की बढती और घटती क्षमताओं और योग्यताओं के समायोजन की भी व्यवस्था परिवार में होती है। जाति व्यवस्था, परिवार और ग्रामकुल यह तीनों मिल कर अर्थ व्यवस्था यानी समाज की विभिन्न भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली व्यवस्था बनती है। रक्षक व्यवस्था भी इन तीनों व्यवस्थाओं में और चौथे शासन व्यवस्था में विकेन्द्रित रूप में स्थापित होती है। परिवार के जाति के या ग्राम के स्तर पर जब प्रेरक, पोषक और रक्षक व्यवस्था अव्यवस्थित हो जाती है या उस का हल नहीं निकल पाता है तब ही केवल शासन व्यवस्था की भूमिका शुरू होती है। जाति व्यवस्था, कौटुंबिक उद्योग और ग्रामकुल में आवश्यकताओं और उत्पादन का समायोजन ठीक से होने से समाज की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति समाज आप ही कर लेता है। ऐसा समाज कभी अन्य समाजों की लूट करने के लिये आक्रमण नहीं करता।  
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उपर्युक्त ढाँचा भारतीय प्रतिमान की मोटी मोटी अभिव्यक्ति है।
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* इस में '''धर्म''' व्यवस्था सामाजिक नीति नियम अर्थात् धर्माचरण के व्यावहारिक सूत्र तय करने का और अधर्माचरण के व्यवहार के लिये दण्ड विधान बनाने का काम करती है। अर्थात् शास्त्रीय भाषा में '''श्रृति के आधार पर 'स्मृति' निर्माण करने का काम''' करती है। इस प्रकार प्रेरक, पोषक तथा निवारक/रक्षक ऐसी तीनों व्यवस्थाओं का मार्गदर्शन करती है।
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* इस मार्गदर्शन का माध्यम '''शिक्षा''' व्यवस्था होती है। इस लिये शिक्षा का या ज्ञानसत्ता का स्थान धर्मसत्ता से नीचे किन्तु शासन की अन्य सत्ताओं से ऊपर का होता है। ब्रह्मचर्य आश्रम, गुरूकुल या विद्याकेन्द्र और कुछ प्रमाण में परिवारों में भी वर्णानुसारी और जीवन के लिये उपयुक्त ऐसे सभी पहलुओं की शिक्षा दी जाती है।
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* लोग जब '''वर्ण''' के अनुसार व्यवहार करते हैं तब समाज '''सुसंस्कृत''' बनता है। और जब लोग अपनी अपनी '''जाति''' के अनुसार व्यवसाय करते हैं समाज '''समृध्द''' बनता है।
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* '''रक्षक''' या निवारक व्यवस्थाएं समाज और व्यक्तियों की संस्कृति और समृध्दि की रक्षा के लिये होती हैं।
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* वर्ण और आश्रम यह व्यवस्थाएं समाज की रचना की व्यवस्थाएं हैं।  
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* परिवार व्यवस्था श्रेष्ठ मानव को जन्म देकर उसे वर्णानुसार संस्कारित करने की व्यवस्था है। यह व्यवस्था पारिवारिक भावना के विकास की भी व्यवस्था है। यह समाज व्यवस्था का लघु-रूप है। सामाजिकता की शिक्षा की नींव डालना परिवार व्यवस्था का काम है। इस कारण इस में पोषक, प्रेरक और रक्षक ऐसी तीनों व्यवस्थाओं का समावेश होता है। इसी प्रकार से जन्म से लेकर मृत्यू पर्यंत तक मनुष्य की बढती और घटती क्षमताओं और योग्यताओं के समायोजन की भी व्यवस्था परिवार में होती है।
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* जाति व्यवस्था, परिवार और ग्रामकुल यह तीनों मिल कर '''अर्थ''' व्यवस्था यानी समाज की विभिन्न भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली व्यवस्था बनती है।
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* रक्षक व्यवस्था भी इन तीनों व्यवस्थाओं में और चौथे शासन व्यवस्था में विकेन्द्रित रूप में स्थापित होती है। परिवार के जाति के या ग्राम के स्तर पर जब प्रेरक, पोषक और रक्षक व्यवस्था अव्यवस्थित हो जाती है या उस का हल नहीं निकल पाता है तब ही केवल शासन व्यवस्था की भूमिका शुरू होती है।
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जाति व्यवस्था, कौटुंबिक उद्योग और ग्रामकुल में आवश्यकताओं और उत्पादन का समायोजन ठीक से होने से समाज की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति समाज आप ही कर लेता है। ऐसा समाज कभी अन्य समाजों की लूट करने के लिये आक्रमण नहीं करता।  
    
वर्तमान में अर्थसत्ता सर्वोपरि बनी हुई है। राजसत्ता उस के निर्देशन में चलती है। शिक्षा अर्थात् ज्ञानसत्ता शासन के नियंत्रण में है। और धर्मसत्ता का तो कहीं नामोनिशान तक दिखाई नहीं देता। प्रतिमान के व्यवस्था समूह की यह एकदम उलटी स्थिती है। धर्म सत्ता के निर्देशन में जब ज्ञानसत्ता शासन और अर्थव्यवस्था को निर्देशित करती है तब समाज ठीक दिशा में सोचता भी है और आगे भी बढता है।   
 
वर्तमान में अर्थसत्ता सर्वोपरि बनी हुई है। राजसत्ता उस के निर्देशन में चलती है। शिक्षा अर्थात् ज्ञानसत्ता शासन के नियंत्रण में है। और धर्मसत्ता का तो कहीं नामोनिशान तक दिखाई नहीं देता। प्रतिमान के व्यवस्था समूह की यह एकदम उलटी स्थिती है। धर्म सत्ता के निर्देशन में जब ज्ञानसत्ता शासन और अर्थव्यवस्था को निर्देशित करती है तब समाज ठीक दिशा में सोचता भी है और आगे भी बढता है।   
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