Changes

Jump to navigation Jump to search
editing done
Line 1: Line 1:  
{{One source|date=January 2019}}
 
{{One source|date=January 2019}}
[[Template:Cleanup reorganize Dharmawiki Page]]
      
हमने जाना है कि समाज के सुख, शांति, स्वतंत्रता, सुसंस्कृतता के लिए समाज का धर्मनिष्ठ होना आवश्यक होता है| यहाँ मोटे तौरपर धर्म से मतलब कर्तव्य से है| समाज धारणा के लिए कर्तव्योंपर आधारित जीवन अनिवार्य होता है| समाज धारणा के लिए धर्म-युक्त व्यवहार में आनेवाली जटिलताओं को और फिर भी उसका अनुपालन कैसे किया जाता है इसकी प्रक्रिया को समझने का प्रयास करेंगे|  
 
हमने जाना है कि समाज के सुख, शांति, स्वतंत्रता, सुसंस्कृतता के लिए समाज का धर्मनिष्ठ होना आवश्यक होता है| यहाँ मोटे तौरपर धर्म से मतलब कर्तव्य से है| समाज धारणा के लिए कर्तव्योंपर आधारित जीवन अनिवार्य होता है| समाज धारणा के लिए धर्म-युक्त व्यवहार में आनेवाली जटिलताओं को और फिर भी उसका अनुपालन कैसे किया जाता है इसकी प्रक्रिया को समझने का प्रयास करेंगे|  
 
विविध स्तर : मानव समाज में जीवन्त इकाईयों के कई स्तर हैं| ये स्तर निम्न हैं|
 
विविध स्तर : मानव समाज में जीवन्त इकाईयों के कई स्तर हैं| ये स्तर निम्न हैं|
१ व्यक्ति   २ कुटुम्ब   ३ ग्राम   ४ व्यवसाय समूह
+
१ व्यक्ति
५ भाषिक समूह   ६ प्रादेशिक समूह   ७ राष्ट्र   ८ विश्व  
+
२ कुटुम्ब
 +
३ ग्राम
 +
४ व्यवसाय समूह
 +
५ भाषिक समूह
 +
६ प्रादेशिक समूह
 +
७ राष्ट्र
 +
८ विश्व  
 
ये सब मानव से या व्यक्तियों से बनीं जीवन्त इकाईयाँ हैं| इन सब के अपने ‘स्वधर्म’ हैं| इन सभी स्तरों के करणीय और अकरणीय बातों को ही उस ईकाई का धर्म कहा जाता है| निम्न स्तरकी ईकाई उससे बड़े स्तरकी ईकाई का हिस्सा होने के कारण हर ईकाईका धर्म आगे की या उससे बड़ी जीवंत ईकाई के धर्म का केवल अविरोधी ही नहीं तो पूरक और पोषक होना आवश्यक होता है| प्राकृतिक दृष्टी से तो यह होता ही है| लेकिन व्यक्ति का स्वार्थ उसे भिन्न व्यवहार के लिए प्रेरित करता है| ऐसा भिन्न व्यवहार कोई व्यक्ति न करे इसके लिए ही शिक्षा होती है| और जो शिक्षा मिलनेपर भी अपनी दुष्टता या मूर्खता के कारण उचित व्यवहार नहीं करता उसके लिए शासन या दंड व्यवस्था होती है| व्यक्ति के धर्म का कोई भी पहलू कुटुम्ब से लेकर वैश्विक धर्म का विरोधी नहीं होना चाहिए| इतना ही नहीं वह इन धर्मों के लिए पूरक और पोषक भी होना चाहिए|
 
ये सब मानव से या व्यक्तियों से बनीं जीवन्त इकाईयाँ हैं| इन सब के अपने ‘स्वधर्म’ हैं| इन सभी स्तरों के करणीय और अकरणीय बातों को ही उस ईकाई का धर्म कहा जाता है| निम्न स्तरकी ईकाई उससे बड़े स्तरकी ईकाई का हिस्सा होने के कारण हर ईकाईका धर्म आगे की या उससे बड़ी जीवंत ईकाई के धर्म का केवल अविरोधी ही नहीं तो पूरक और पोषक होना आवश्यक होता है| प्राकृतिक दृष्टी से तो यह होता ही है| लेकिन व्यक्ति का स्वार्थ उसे भिन्न व्यवहार के लिए प्रेरित करता है| ऐसा भिन्न व्यवहार कोई व्यक्ति न करे इसके लिए ही शिक्षा होती है| और जो शिक्षा मिलनेपर भी अपनी दुष्टता या मूर्खता के कारण उचित व्यवहार नहीं करता उसके लिए शासन या दंड व्यवस्था होती है| व्यक्ति के धर्म का कोई भी पहलू कुटुम्ब से लेकर वैश्विक धर्म का विरोधी नहीं होना चाहिए| इतना ही नहीं वह इन धर्मों के लिए पूरक और पोषक भी होना चाहिए|
 
प्रत्येक मनुष्य जीवन में कई भूमिकाएं निभाता है| इन भूमिकाओं के मोटे मोटे दो हिस्से कर सकते हैं| अंजान वातावरण में व्यक्ति की भूमिका व्यक्ति के स्तर की होती है| जब की परिचित वातावरण में वह परिचितों को अपेक्षित भूमिका निभाए ऐसी उस से अपेक्षा होती है| उस समय वह किसी समूह का याने कुटुंब, ग्राम, व्यावसायिक समूह या जाति, प्रादेशिक समूह, भाषिक समूह, राष्ट्र आदि के सदस्य की भूमिका में होता है| मनुष्य को समूह के विभिन्न स्तरोंपर काम तो व्यक्ति के रूप में ही करना है| फिर भी सुविधा के लिए व्यक्ति के स्तर से ऊपर की इकाई का विचार हम अगले अध्याय, “जिम्मेदारी समूह” में करेंगे| यहाँ केवल व्यक्ति के स्तरपर क्या करना है इसका विचार करेंगे|  
 
प्रत्येक मनुष्य जीवन में कई भूमिकाएं निभाता है| इन भूमिकाओं के मोटे मोटे दो हिस्से कर सकते हैं| अंजान वातावरण में व्यक्ति की भूमिका व्यक्ति के स्तर की होती है| जब की परिचित वातावरण में वह परिचितों को अपेक्षित भूमिका निभाए ऐसी उस से अपेक्षा होती है| उस समय वह किसी समूह का याने कुटुंब, ग्राम, व्यावसायिक समूह या जाति, प्रादेशिक समूह, भाषिक समूह, राष्ट्र आदि के सदस्य की भूमिका में होता है| मनुष्य को समूह के विभिन्न स्तरोंपर काम तो व्यक्ति के रूप में ही करना है| फिर भी सुविधा के लिए व्यक्ति के स्तर से ऊपर की इकाई का विचार हम अगले अध्याय, “जिम्मेदारी समूह” में करेंगे| यहाँ केवल व्यक्ति के स्तरपर क्या करना है इसका विचार करेंगे|  
इसी का विभाजन यम और नियमों के रूप में अष्टांग योग में किया गया है| सामान्यत: शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान इन पाँच नियमों का संबंध यक्तिगत स्तर के लिए अधिक होता है| अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य इन पाँच प्रकार के ‘यम’ का संबंध मुख्यत: समाज से होता है| इसलिए यहाँ व्यक्तिगत स्तरपर शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान आदि के विषय में विचार करना उचित होगा|  
+
इसी का विभाजन यम और नियमों के रूप में अष्टांग योग में किया गया है| सामान्यत: शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान इन पाँच नियमों का संबंध यक्तिगत स्तर के लिए अधिक होता है| अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य इन पाँच प्रकार के ‘यम’ का संबंध मुख्यत: समाज से होता है| इसलिए यहाँ व्यक्तिगत स्तरपर शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान आदि के विषय में विचार करना उचित होगा|  
व्यक्ति के स्तरपर जिन अन्य धर्मों का समावेश भी होता है ऐसे इन नियमों से भिन्न, लेकिन साथ ही विचार करने योग्य पहलू निम्न होंगे|  
+
व्यक्ति के स्तरपर जिन अन्य धर्मों का समावेश भी होता है ऐसे इन नियमों से भिन्न, लेकिन साथ ही विचार करने योग्य पहलू निम्न होंगे|  
 
अ) जन्मजात / स्वभावज : याने जन्म से जो सत्त्व-रज-तम युक्त स्वभाव मिला है उसमें शुद्धि और विकास करना| इसे ही वर्णधर्म कहते हैं| इसे ही श्रीमद्भगवद्गीता में ‘स्वधर्म’ कहा है|  इसी तरह से जन्म से ही जो त्रिदोषात्मक शरीर मिला है उसे धर्मं साधना के लिए स्वस्थ रखना भी महत्वपूर्ण है| शरीर स्वस्थ रहे, निरोग रहे, बलवान रहे, लचीला रहे, कौशल्यवान रहे, तितिक्षावान रहे इस के लिए जो करणीय और अकरणीय बातें हैं उन्हें ही शरीरधर्म कहते हैं|
 
अ) जन्मजात / स्वभावज : याने जन्म से जो सत्त्व-रज-तम युक्त स्वभाव मिला है उसमें शुद्धि और विकास करना| इसे ही वर्णधर्म कहते हैं| इसे ही श्रीमद्भगवद्गीता में ‘स्वधर्म’ कहा है|  इसी तरह से जन्म से ही जो त्रिदोषात्मक शरीर मिला है उसे धर्मं साधना के लिए स्वस्थ रखना भी महत्वपूर्ण है| शरीर स्वस्थ रहे, निरोग रहे, बलवान रहे, लचीला रहे, कौशल्यवान रहे, तितिक्षावान रहे इस के लिए जो करणीय और अकरणीय बातें हैं उन्हें ही शरीरधर्म कहते हैं|
 
आ) स्त्री-पुरुष : स्त्री या पुरुष होने के कारण स्त्री होने का या पुरुष होने का जो प्रयोजन है उसे पूर्ण करना| स्त्री ने एक अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नि, अच्छी गृहिणी, अच्छी माता, अच्छी समाज सदस्य, अच्छी राष्ट्रभक्त बनना| इसी तरह से पुरुष ने अच्छा बेटा, अच्छा भाई, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ, अच्छा पिता, अच्छा समाज सदस्य, अच्छा राष्ट्रभक्त बनना| iइस दृष्टी से अपने गुणों का विकास करना|  i
 
आ) स्त्री-पुरुष : स्त्री या पुरुष होने के कारण स्त्री होने का या पुरुष होने का जो प्रयोजन है उसे पूर्ण करना| स्त्री ने एक अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नि, अच्छी गृहिणी, अच्छी माता, अच्छी समाज सदस्य, अच्छी राष्ट्रभक्त बनना| इसी तरह से पुरुष ने अच्छा बेटा, अच्छा भाई, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ, अच्छा पिता, अच्छा समाज सदस्य, अच्छा राष्ट्रभक्त बनना| iइस दृष्टी से अपने गुणों का विकास करना|  i
Line 42: Line 47:  
इस उपर्युक्त क्रम में मैं यथासंभव ऊपर के स्तरपर रहूँ ऐसा प्रयास प्रत्येकने करते रहना चाहिए|
 
इस उपर्युक्त क्रम में मैं यथासंभव ऊपर के स्तरपर रहूँ ऐसा प्रयास प्रत्येकने करते रहना चाहिए|
   −
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन (प्रतिमान)]]
+
==References==
 +
 
 +
<references />
 +
 
 +
अन्य स्रोत:
 +
 
 
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन प्रतिमान)]]
 
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन प्रतिमान)]]
890

edits

Navigation menu