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== वर्णधर्म ==
 
== वर्णधर्म ==
समाज में सबको साथ मिलकर रहना है । सौहार्द से
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समाज में सबको साथ मिलकर रहना है। सौहार्द से रहना है। सबके लिए सुख, शान्ति, समृद्धि, संस्कार सुलभ हो, इस प्रकार रहना है। इस हेतु से हमारे मनीषियों ने वर्णव्यवस्था दी। आज इस व्यवस्था का विपर्यास होकर वह अत्यन्त विकृत हो गई है, यह सत्य है परन्तु वह मूल में ऐसी नहीं है, यह भी सत्य है। मूल में तो यह समाज की धारणा करने वाली और मनुष्यों की अर्थ और काम की प्रवृत्ति को सम्यक रूप से नियमन में रखने वाली व्यवस्था ही रही है। आज हम उस व्यवस्था की विकृतियाँ दूर कर उसे पुनर्स्थापित कैसे करें इसका ही विचार करना चाहिए ।
रहना है। सबके लिए सुख, शान्ति, समृद्धि, संस्कार सुलभ
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हो इस प्रकार रहना है । इस हेतु से हमारे मनीषियों ने
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वर्णव्यवस्था दी । आज इस व्यवस्था का विपर्यास होकर
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वह अत्यन्त विकृत हो गई है यह सत्य है परन्तु वह मूल में
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ऐसी नहीं है यह भी सत्य है । मूल में तो यह समाज की
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धारणा करने वाली और मनुष्यों की अर्थ और काम की
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प्रवृत्ति को सम्यक रूप से नियमन में रखने वाली व्यवस्था
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ही रही है । आज हम उस व्यवस्था की विकृतियाँ दूर कर
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उसे पुनर्स्थापित कैसे करें इसका ही विचार करना चाहिए ।
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वर्णव्यवस्था का मूल आधार प्राकृतिक है । वर्ण,
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वर्णव्यवस्था का मूल आधार प्राकृतिक है। वर्ण, जैसा कि भगवद् गीता में बताया गया है, गुण और कर्म के अनुसार निश्चित होते हैं। गुण का अर्थ है सत्त्व, रज और तम - ये तीन गुण। ये तीनों गुण सम्मिलित रूप में प्रत्येक व्यक्ति में होते ही हैं। गुणों के कम अधिक होने से वर्ण निश्चित होता है। जिस व्यक्ति में सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण क्रम से प्रबल हैं, वह ब्राह्मण है; जिसमे रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण क्रम से प्रबल हैं वह क्षत्रिय है; रजोगुण, तमोगुण और सत्त्वगुण क्रम से प्रबल हैं वह वैश्य है और तमोगुण, रजोगुण, सत्त्वगुण से प्रबल हैं, वह शूद्र है। जन्मजन्मांतर के कर्म, कर्मफल और उसके भोग की श्रंखला से इस जन्म के लिए जो संस्कार बनते हैं, उसे कर्म कहते हैं। गुण और कर्म प्रत्येक मनुष्य की मानसिक प्रवृत्तियों के कारण ही बनते हैं। हर जन्म में मनुष्य का प्राकृतिक वर्ण भिन्न भिन्न ही होता है। परन्तु सामाजिक व्यवस्था में यह वंश के अनुसार ही स्थापित किया गया है। अर्थात ब्राह्मण कुल में जन्मा व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय कुल में जन्मा व्यक्ति क्षत्रिय, वैश्य कुल में जन्मा व्यक्ति वैश्य और शूद्र कुल में जन्मा व्यक्ति शूद्र माना जाता है।
जैसा कि भगवद्रीता में बताया गया है, गुण और कर्म के
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अनुसार निश्चित होते हैं । गुण का अर्थ है सत्त्व, रज और
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तम ये तीन गुण । ये तीनों गुण सम्मिलित रूप में प्रत्येक
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व्यक्ति में होते ही हैं । गुणों के कम अधिक होने से वर्ण
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निश्चित होता है । सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण क्रम से
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वर्ण के अनुसार व्यक्ति के आचार, व्यवसाय और विवाह निश्चित होते हैं। ब्राह्मण का व्यवसाय मुख्य रूप से अध्यापन करना, पौरोहित्य करना और चिकित्सा करना है। उसे समाज के ज्ञान और संस्कार का रक्षण और संवर्धन करना है। परम्परा में ब्राह्मण राजा के पुरोहित, मंत्री और आमात्य भी रहे हैं। ब्राह्मण को समाज के हर वर्ग को अपने अपने कर्तव्य धर्म की शिक्षा देनी है और आवश्यकता के अनुसार मार्गदर्शन करना है। इस दृष्टि से शुद्धता, पवित्रता, तप, संयम, सादगी, साधना उसका आचार है। अपने आचार छोड़ने वाला ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता, भले ही उसने ब्राह्मण कुल में जन्म लिया हो। आचारधर्म का कठोरता से पालन करने पर ही उसे समाज की ओर से सम्मान और आदर प्राप्त होता है। यह ब्राह्मण का वर्णधर्म है। ब्राह्मण यदि अपने धर्म से च्युत्‌ होता है तब स्वयं उसे जो नुकसान होता है, उससे भी अधिक नुकसान सम्पूर्ण समाज का होता है। संस्कार और ज्ञान के क्षेत्र में भीषण संकट निर्माण होता है और समाज की दुर्गति होती है।
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प्रबल हैं वह ब्राह्मण है; रजोगुण,
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क्षत्रिय का काम है युद्ध करना, दुर्बलों की रक्षा करना, दान करना और शासन करना। उसे अध्ययन करना है परंतु अध्यापन नहीं करना है। शौर्य उसका स्वभाव है। दान करना उसकी प्रवृत्ति है। घाव सहना उसका काम है वह वैभव भोगता है परन्तु अपने जीवन की रक्षा हेतु युद्ध से पलायन नहीं करता है।  
aa और तमोगुण क्रम से प्रबल हैं वह क्षत्रिय है;
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रजोगुण, तमोगुण और सत्त्वगुण क्रम से प्रबल हैं वह वैश्य
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है और तमोगुण, रजोगुण sk aay wa से प्रबल हैं
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वह शूट्र है । जन्मजन्मांतर के कर्म, कर्मफल और उसके
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भोग की शुंखला से इस जन्म के लिए जो संस्कार बनते हैं
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उसे कर्म कहते हैं । गुण और कर्म प्रत्येक मनुष्य कि
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मानसिक प्रवृत्तियों के कारण ही बनते हैं। हर जन्म में
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मनुष्य का प्राकृतिक वर्ण भिन्न भिन्न ही होता है । परन्तु
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सामाजिक व्यवस्था में यह वंश के अनुसार ही स्थापित
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किया गया है। अर्थात ब्राह्मण कुल में जन्मा व्यक्ति
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ब्राह्मण, क्षत्रिय कुल में जन्मा व्यक्ति क्षत्रिय, वैश्य कुल में
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जन्मा व्यक्ति वैश्य और शूट्र कुल में जन्मा व्यक्ति शूट्र माना
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जाता है ।
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वर्ण के अनुसार व्यक्ति के आचार, व्यवसाय और
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वैश्य का काम है, समाज के भौतिक पदार्थों की आवश्यकताओं को पूर्ण करना। अन्न, वस्त्र आदि आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वह कृषि करता है, भौतिक संसाधनों का संगोपन और संवर्धन करता है और सबको अपनी आवश्यकताओं के अनुसार वस्तुयें प्राप्त हों इसकी व्यवस्था करता है। वह वैभव में रहता है और लक्ष्मी का उपासक है।
विवाह निश्चित होते हैं । ब्राह्मण का व्यवसाय मुख्य रूप से
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अध्यापन करना, पौरोहित्य करना और चिकित्सा करना है ।
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उसे समाज के ज्ञान और संस्कार का रक्षण और संवर्धन
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करना है । परम्परा में ब्राह्मण राजा के पुरोहित, मंत्री और
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आमात्य भी रहे हैं । ब्राह्मण को समाज के हर वर्ग को अपने
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अपने कर्तव्य धर्म की शिक्षा देनी है और आवश्यकता के
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अनुसार मार्गदर्शन करना है । इस दृष्टि से शुद्धता, पवित्रता,
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तप, संयम, सादगी, साधना उसका आचार है । अपने
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आचार छोड़ने वाला ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता,
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भले ही उसने ब्राह्मण कुल में जन्म लिया हो । आचारधर्म
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का कठोरता से पालन करने पर ही उसे समाज की ओर से
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सम्मान और आदर प्राप्त होता है । यह ब्राह्मण का वर्णधर्म
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है । ब्राह्मण यदि अपने धर्म से च्युत्‌ होता है तब स्वयं उसे
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जो नुकसान होता है उससे भी अधिक नुकसान सम्पूर्ण
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समाज का होता है । संस्कार और ज्ञान के क्षेत्र में भीषण
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संकट निर्माण होता है और समाज की दुर्गति होती है ।
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क्षत्रयि का काम है युद्ध करना, दुर्बलों की रक्षा करना, दान
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करना और शासन करना । उसे अध्ययन करना है परंतु
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अध्यापन नहीं करना है । शौर्य उसका स्वभाव है । दान
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करना उसकी प्रवृत्ति है । घाव सहना उसका काम है । वह
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शूद्र परिचर्या करता है, ऐसा भगवद्रीता कहती है। परिचर्या का अर्थ शरीर से संबन्धित काम करना है। परन्तु व्यापक अर्थ में वह शरीर के लिए आवश्यक ऐसी सभी वस्तुओं को बनाने वाला है। सर्व प्रकार की कारीगरी करना और असंख्य उपयोगी वस्तुओं का निर्माण करना शूद्र का काम है। शूद्र को आर्थिक दृष्टि से निश्चिन्तता देना वैश्य का, उनकी रक्षा करना क्षत्रिय का और उनके संस्कारों की रक्षा करना ब्राह्मण का काम है। चारों वर्णों में, ब्राह्मण सरस्वती का, क्षत्रिय दुर्गा का, वैश्य लक्ष्मी का और शूद्र अन्नपूर्णा का उपासक है। ब्राह्मण ज्ञान और संस्कार की उपासना कर समाज की, संस्कृति की और शूद्र भौतिक समृद्धि की सुनिश्चिति करता है। क्षत्रिय इन सबकी रक्षा का और वैश्य समृद्धि के वितरण की व्यवस्था करता है। चारों अपने अपने कामों से समाज की सेवा करते हैं। सेवा की वृत्ति का जतन करना और बाजारीकरण की विकृति को नहीं पनपने देने का दायित्व ब्राह्मण का है क्योंकि वह धर्म सिखाता है। जब ब्राह्मण अपना दायित्व भूल जाता है तब समाज की दुर्गति होती है। जब क्षत्रिय अपना दायित्व भूल जाता है तब समाज असुरक्षित बन जाता है। जब वैश्य अपना दायित्व भूल जाता है तब समाज दरिद्र होता है । जब शूद्र अपना दायित्व भूल जाता है तब समाज असुविधा में पड़ जाता है, कोई उद्योग धन्धे नहीं चलते ।
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वैभव भोगता है परन्तु अपने जीवन की
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समाज में ये चारों वर्ण चाहिए और उनके कामों की अच्छी व्यवस्था भी होनी चाहिए। सब अपना अपना काम करें और किसी को काम का अभाव न रहे यह देखना शासक का कर्तव्य होता है। ऐसी व्यवस्था को स्वायत्त समाजव्यवस्था कहते हैं। स्वायत्त समाज की व्यवस्था में वर्णव्यवस्था का महत्वपूर्ण योगदान है ।
रक्षा हेतु युद्ध से पलायन नहीं करता है । वैश्य का काम है
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समाज के भौतिक पदार्थों की आवश्यकताओं को पूर्ण
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करना । अन्न, वस्त्र आदि आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वह
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कृषि करता है, भौतिक संसाधनों का संगोपन और संवर्धन
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करता है और सबको अपनी आवश्यकताओं के अनुसार
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वस्तुयें प्राप्त हों इसकी व्यवस्था करता है । वह वैभव में
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रहता है और लक्ष्मी का उपासक है । शूट्र परिचर्या करता है
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ऐसा भगवद्रीता कहती है । परिचर्या का अर्थ शरीर से
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संबन्धित काम करना है । परन्तु व्यापक अर्थ में वह शरीर
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के लिए आवश्यक ऐसी सभी वस्तुओं को बनाने वाला है ।
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सर्व प्रकार की कारीगरी करना और असंख्य उपयोगी
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वस्तुओं का निर्माण करना शूट्र का काम है । शूट्र को
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आर्थिक दृष्टि से निर्शितता देना वैश्य का, उनकी रक्षा करना
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क्षत्रयि का और उनके संस्कारों की रक्षा करना ब्राह्मण का
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काम है । चारों वर्णों में ब्राह्मण सरस्वती का, क्षत्रिय दुर्गा
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का, वैश्य लक्ष्मी का और शूट्र अन्नपूर्णा का उपासक है ।
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ब्राह्मण ज्ञान और संस्कार की उपासना कर समाज की
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संस्कृति की और शूद्र भौतिक समृद्धि की सुनिश्चिति करता
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है। क्षत्रयि इन सबकी रक्षा का और वैश्य समृद्धि के
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वितरण की व्यवस्था करता है । चारों अपने अपने कामों से
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समाज की सेवा करते हैं । सेवा की वृत्ति का जतन करना
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और बाजारीकरण की विकृति को नहीं पनपने देने का
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दायित्व ब्राह्मण का है क्योंकि वह धर्म सिखाता है । जब
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ब्राह्मण अपना दायित्व भूल जाता है तब समाज की दुर्गति
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होती है । जब क्षत्रिय अपना दायित्व भूल जाता है तब
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समाज असुरक्षित बन जाता है । जब वैश्य अपना दायित्व
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भूल जाता है तब समाज द्रिद्र होता है । जब शूद्र अपना
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दायित्व भूल जाता है तब समाज असुविधा में पड़ जाता है,
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कोई उद्योग धन्धे नहीं चलते
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समाज में ये चारों वर्ण चाहिए और उनके कामों की
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आज इस व्यवस्था का विपर्यास हो गया है। यद्यपि जन्म से वर्ण माने जाते हैं परन्तु सभी वर्णों ने अपने अपने व्यवसाय और आचार छोड़ दिये हैं। राज्य की व्यवस्था में वर्ण कोई मायने नहीं रखता है। राज्य की व्यवस्था में केवल व्यवसाय ही नहीं तो विवाह भी वर्ण के अनुसार करने की बाध्यता नहीं है। केवल कर्मकांडों में, लोगों की मानसिकता में और अनर्थक अहंकार का जतन करने हेतु वर्णों का उल्लेख किया जाता है। वर्णव्यवस्था सर्वथा अव्यवस्था में बदल गई है और सामाजिक समरसता नष्ट कर विद्वेष बढ़ाने का साधन बन गई है। आचार, व्यवसाय और विवाह इन तीन मुद्दों को ध्यान में रखकर इस व्यवस्था का पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। समाज की धारणा करने वाला यह धर्म का प्रमुख आयाम है ।
अच्छी व्यवस्था भी होनी चाहिए । सब अपना अपना काम
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करें और किसीको काम का अभाव न रहे यह देखना
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शासक का कर्तव्य होता है । ऐसी व्यवस्था को स्वायत्त
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समाजव्यवस्था कहते हैं । स्वायत्त समाज की व्यवस्था में
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वर्णव्यवस्था महत्वपूर्ण योगदान है ।
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धर्मानुसारिणी समाजव्यवस्था में कुटुंब संस्था का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। कुट्म्ब का केंद्रवर्ती घटक है पति पत्नी। स्त्री और पुरुष को पति पत्नी बनाने वाला विवाह संस्कार है। मनुष्य जीवन को श्रेष्ठ बनाने हेतु संस्कारों की और उनमें भी नित्य द्वन्द्वात्मक स्वरूप की स्त्रीधारा और पुरुषधारा की एकात्मता सिद्ध करने वाले विवाह संस्कार की और इसकी कल्पना करने वाले ऋषियों की प्रज्ञा की जितनी प्रशंसा की जाय उतनी कम है। विवाह में स्त्री पुरुष की एकात्मता की अपेक्षा की गई है और उसके आदर्श के रूप में शिव और पार्वती के युगल की प्रतिष्ठा की गई है। उनकी एकात्मता को अर्धनारीश्वर की प्रतिमा में व्यक्त किया गया है। विवाह में लक्षित एकात्मता का ही विस्तार होते होते वसुधैव कुटुंबकम्‌ के सूत्र की सिद्धि तक पहुँचा जाता है। कुट्म्ब का भावात्मक स्वरूप है आत्मीयता। इसे ही परिवारभावना कहते हैं। सम्पूर्ण समाजव्यवस्था में कुटुंब भावना अनुस्यूत रहे ऐसी कल्पना की गई है ।
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आज इस व्यवस्था का विपर्यास हो गया है । यद्यपि
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स्त्री और पुरुष के सम्बन्धों को पति पत्नी में केंद्रिय कर उसके विस्तार के रूप में भाई बहन, माता पिता और संतानों के संबंध विकसित किए गए हैं और जगत के सभी स्त्री पुरुषों के सम्बन्धों को इनमें समाहित किया गया है । जिसके साथ विवाह हुआ है उसके अलावा अन्य सभी पुरुष, स्त्री के लिए भाई, पुत्र या पिता समान हैं और पुरुष के लिए स्त्री माता, पुत्री और बहन के समान है ऐसी धर्मबुद्धि समाज को अनाचारी बनने से बचाती है। स्त्री और पुरुष के शील की रक्षा समाजधर्म का महत्वपूर्ण आयाम है। इस प्रकार आचार, व्यवसाय और विवाहव्यवस्था के
जन्म से वर्ण माने जाते हैं परन्तु सभी वर्णों ने अपने अपने
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व्यवसाय और आचार छोड़ दिये हैं । राज्य की व्यवस्था में
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वर्ण कोई मायने नहीं रखता है । राज्य की व्यवस्था में
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केवल व्यवसाय ही नहीं तो विवाह भी वर्ण के अनुसार
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करने की बाध्यता नहीं है । केवल कर्मकांडों में, लोगों की
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मानसिकता में और अनर्थक अहंकार का जतन करने हेतु
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वर्णों का उल्लेख किया जाता है। वर्णव्यवस्था सर्वथा
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अव्यवस्था में बदल गई है और सामाजिक समरसता नष्ट
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कर विट्रेष बढ़ाने का साधन बन गई है । आचार, व्यवसाय
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और विवाह इन तीन मुद्दों को ध्यान में रखकर इस व्यवस्था
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का पुनर्विचार करने की आवश्यकता है । समाज की धारणा
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करने वाला यह धर्म का प्रमुख आयाम है ।
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धर्मानुसारिणी समाजव्यवस्था में erst संस्था का
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अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है । कुट्म्ब का केंद्रवर्ती घटक है
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पति पत्नी । of ak ges को पतिपत्नी बनाने वाला
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विवाहसंस्कार है । मनुष्यजीवन को श्रेष्ठ बनाने हेतु संस्कारों
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की और उनमें भी नित्य ट्रन्ट्रात्टक स्वरूप की स्त्रीधारा और
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पुरुषधारा की एकात्मता सिद्ध करने वाले विवाहसंस्कार की
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और इसकी कल्पना करने वाले क्षियों की प्रज्ञा की
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जितनी प्रशंसा की जाय उतनी कम है । विवाह में स्त्री पुरुष
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की एकात्मता की अपेक्षा की गई है और उसके आदर्श के
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रूप में शिव और पार्वती के युगल की प्रतिष्ठा की गई है ।
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उनकी एकात्मता को अर्धनारीश्वर की प्रतिमा में व्यक्त किया
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गया है । विवाह में लक्षित एकात्मता का ही विस्तार होते
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होते वसुधैव कुटुंबकम्‌ के सूत्र की सिद्धि तक पहुँचा जाता
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है । कुट्म्ब का भावात्मक स्वरूप है आत्मीयता । इसे ही
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परिवारभावना कहते हैं । सम्पूर्ण समाजव्यवस्था में pea
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भावना अनुस्यूत रहे ऐसी कल्पना की गई है ।
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स्त्री और पुरुष के सम्बन्धों को पति पत्नी में केंद्रिय
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कर उसके विस्तार के रूप में भाई बहन, माता पिता और
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संतानों के संबंध विकसित किए गए हैं और जगत के सभी
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स्त्री पुरुषों के सम्बन्धों को इनमें समाहित किया गया है ।
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जिसके साथ विवाह हुआ है उसके अलावा अन्य सभी
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पुरुष, स्त्री के लिए भाई, पुत्र या पिता समान हैं और पुरुष
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के लिए स्त्री माता, पुत्री और बहन के समान है ऐसी
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धर्मबुद्धि समाज को अनाचारी बनने से बचाती है । स्त्री और
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पुरुष के शील की रक्षा समाजधर्म का महत्वपूर्ण
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आयाम है ।
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इस प्रकार आचार, व्यवसाय और विवाहव्यवस्था के
   
माध्यम से वर्णधर्म समाज का रक्षक है ।
 
माध्यम से वर्णधर्म समाज का रक्षक है ।
  

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